बेल (Vine) अति प्राचीन एवं औषधीय गुणों से भरपूर भारतीय वृक्ष है| विपरीत जलवायु में भी इसकी खेती की जा सकती है, आज के संदर्भ में, इस बदलते परिवेश में भारत के लोग औषधीय फलों के प्रति अधिक जागरूक हो गये हैं| ऐसे में बेल की बागवानी अधिक उपयोगी हो गई है| अतः इसकी बागवानी को बढावा देने की आवश्यकता है| बेल बारानी खेती के लिए एक महत्वपूर्ण फलवृक्ष है|
बेल के पांचांग (जड़, छाल, पत्ते, शाख एवं फल) औषधि के रूप में मानव के लिए बहुत उपयोगी हैं| बेल के औषधीय गुणों का वर्णन यर्जुवेद, जैन साहित्य, उपवन विनोद, चरक संहिता और वृहत संहिता में मिलता है| बेल को श्रीफल के नाम से भी जाना जाता है| इसकी पत्तियों को भगवान शिव की आराधना में उपयोग में लिया जाता है|
वैदिक संस्कृत साहित्य में इसे दिव्य वृक्ष कहा जाता है| इसके अन्य नाम संस्कृत में बिल्व, श्रीफल, पतिवात, शैलपत्र, लक्ष्मीपुत्र एवं शिवेष्ट हैं| तमिल में बिल्बम एवं तेलगू में बिल्वयु तथा मोरेड् के नाम से जाना जाता है|
बेल अपनी विशेषताओं, जैसे प्रति ईकाई उच्च उत्पादकता, विभिन्न प्रकार की बंजर भूमि में उपयुक्तता, पोषण तथा औषधीय गुणों से भरपूर विभिन्न प्रकार की परिरक्षित पदार्थ एवं अधिक समय तक भण्डारण क्षमता के कारण 21 वीं सदी में प्रमुख फल के रूप में स्थापित हो सकता है| प्रस्तुत लेख में बेल की बारानी खेती वैज्ञानिक तकनीक से कैसे करें एवं उपयोगिता का सविस्तार वर्णन किया गया है|
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बेल की खेती के लिए भूमि का चयन
बेल को किसी भी प्रकार की भूमि में उगाया जा सकता है, परन्तु उपयुक्त जल निकास युक्त बुलई दोमट भूमि, इसकी खेती के लिये अधिक उपयुक्त है| समस्याग्रस्त क्षेत्रों, जैसे- ऊसर, बंजर, कंकरीली, खादर एवं बीहड भूमि में भी इसकी खेती सफलतापूर्वक की जा सकती है| वैसे तो बेल की खेती के लिए 6 से 8 पी एच मान वाली भूमि अधिक उपयुक्त होती है| बेल एक सहनशील वृक्ष है, जिसके कारण इसकी वर्षा आधारित खेती अर्धशुष्क क्षेत्रों में सफलतापूर्वक की जा सकती है|
बेल की खेती के लिए उपयुक्त जलवायु
बेल एक उपोष्ण जलवायु का पौधा है, फिर भी इसे अर्धशुष्क जलवायु में भी सफलतापूर्वक उगाया जा सकता है| इसकी बागवानी समुद्र तल से 1200 मीटर ऊंचाई तक और 46 सेल्सियस तापमान तक सफलतापूर्वक की जा सकती है| प्रायः पेड की टहनियों पर कांटे पाये जाते हैं एवं अप्रैल से जून की गर्मी के समय इसकी पत्तियाँ गिर जाती है, जिससे पौधों में शुष्क एवं अर्धशुष्क जलवायु को सहन करने की क्षमता बढ़ जाती है|
बेल की खेती के लिए किस्में का चयन
विभिन्न कृषि विश्वविद्यालय एवं आई सी ए आर के संस्थानों द्वारा विभिन्न चयनित बेल की किस्मों के कारण पूर्व में विकसित किस्मों, जैसे- सिवान, देवरिया बडा, कागजी इटावा, चकिया, मिर्जापुरी, कागजी गोण्डा आदि के रोपण की संस्तुति अब नहीं की जा रही है| कुछ प्रमुख उन्नत किस्में जो वर्तमान में प्रचलित है| जो इस प्रकार है, जैसे- नरेन्द्र बेल- 5, नरेन्द्र बेल- 7, नरेन्द्र बेल- 9, पंत सिवानी, पंत अर्पणा, पंत उर्वशी, पंत सुजाता, गोमा यशी, सी आई एस एच बी- 1 और सी आई एस एच बी- 2 आदि है| किस्मों की विस्तार से जानकारी के लिए यहाँ पढ़ें- बेल की उन्नत किस्में, जानिए उनकी विशेषताएं और पैदावार
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बेल की खेती के लिए प्रवर्धन तकनीक
बेल के पौधे मुख्य रूप से बीज द्वारा तैयार किये जाते हैं| बीजों की बुवाई फलों से निकलने के तुरन्त बाद 15 से 20 सेंटीमीटर की ऊंची बेड में 1 से 2 सेंटीमीटर की गहराई पर की जाती है| बुवाई का उत्तम समय मई से जून का महीना होता है| व्यावसायिक स्तर पर बेल की खेती हेतु पौधों को चश्मा विधि से तैयार करना चाहिए|
चश्मा की विभिन्न विधियों में जून से जुलाई माह में पैबन्दी चश्मा विधि द्वारा 80 से 90 प्रतिशत तक सफलता प्राप्त की जा सकती है और सांकुर डाली की वृद्धि भी अच्छी होती है| कलिका को 1 से 2 वर्ष पुराने बेल के बीज पौधे पर ध्रुवता को ध्यान में रखते हुए चढाना चाहिए| जब कलिका ठीक प्रकार से फुटाव ले ले तो मूलत को कलिका के ऊपर से काट देना चाहिए|
पॉली एवं नेट हाऊस की सहायता से कोमल शाख बंधन तकनीक द्वारा बेल का प्रवर्धन साल के अन्य महीनों में भी सफलतापूर्वक किया जा सकता है| इस विधि में क्लेफ्ट या वेज विधि से ग्राफ्टिंग करके 80 से 90 प्रतिशत तक सफलता प्राप्त की जा सकती है| पौधों में पैबन्दी चश्मा करने से अधिक सफलता तथा पौधों का विकास अच्छा होता है|
बेल की खेती के लिए पौध रोपाई
बेल की बारानी खेती के लिए रोपाई 5 से 8 मीटर की दूरी पर मृदा उर्वरता तथा पौधे की बढवार के अनुसार करनी चाहिए| रोपण हेतु जुलाई से अगस्त माह अच्छा पाया गया है| इसलिए अप्रैल से मई माह में 5 से 8 मीटर के अन्तर पर 1 x 1 x 1 मीटर के गड्ढे तैयार कर लेते हैं| यदि जमीन में कंकड की तह हो तो उसे निकाल देना चाहिए|
इन गड्ढों को 20 से 30 दिनों तक खुला छोड कर 3 से 4 टोकरी गोबर की सडी खाद, गड्ढे की ऊपरी आधी मिट्टी में मिलाना चाहिए| दीमक की रोकथाम के लिए क्लोरपारीफॉस 20 ई सी से गड्ढों में छिडकाव करना चाहिए| गोमा यशी तथा एनबी- 5 पौधे सघन बागवानी के लिये उपयुक्त पाये गये हैं|
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बेल की खेती में खाद एवं उर्वरक
पौधों की अच्छी बढवार, अधिक फलत एवं पेड़ों को स्वस्थ रखने के लिये विभिन्न पोषक तत्वों की आवश्यकता पड़ती है| इसलिए प्रत्येक पौधे में 5 किलोग्राम गोबर की सडी खाद, 50 ग्राम नत्रजन, 25 ग्राम फास्फोरस एवं 50 ग्राम पोटास की मात्रा प्रति वर्ष डालनी चाहिए| खाद एवं उर्वरक की यह मात्रा दस वर्ष तक गुणित अनुपात में डालते रहना चाहिए| इस प्रकार 10 वर्ष या उससे अधिक आयु वाले वृक्ष को 500 ग्राम नत्रजन, 250 ग्राम फास्फोरस और 500 ग्राम पोटास के अतिरिक्त 50 किलोग्राम गोबर की सडी खाद डालना उत्तम होता है|
खराब भूमि में लगाये गये पौधों में प्रायः जस्ते की कमी के लक्षण दिखाई देते हैं| अतः ऐसे पेडों में 250 ग्राम जिंक सल्फेट प्रति पौधे की दर से उर्वकों के साथ डालना चाहिये| खाद एवं उर्वरकों की पूरी मात्रा जून से जुलाई माह में डालनी चाहिए| जिन बागों में फलों के फटने की समस्या हो उनमें खाद एवं उर्वरक के साथ 100 ग्राम प्रति वृक्ष बोरेक्स (सुहागा) का प्रयोग करना चाहिये|
बेल की खेती के लिए सिंचाई प्रबंधन
नये पौधों को स्थापित करने के लिए एक दो वर्ष सिंचाई की आवश्यकता पड़ती है| स्थापित पौधे बिना सिंचाई के भी अच्छी तरह से रह सकते हैं| गर्मियों में बेल का पौधा अपनी पत्तियाँ गिरा कर सुषुप्ता अवस्था में चला जाता है और इस तरह यह सूखे को सहन कर लेता है| बेल के पौधों को अर्धशुष्क क्षेत्र में बारानी खेती में अधिक पानी की जरूरत नहीं पड़ती है|
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बेल की खेती में सधाई एवं छंटाई-छटाई
पौधों की सधाई, सुधरी प्ररोह विधि से करना उत्तम होता है| सधाई का कार्य शुरू के 4 से 5 वर्षों में ही करना चाहिए| मुख्य तने को 75 सेंटीमीटर तक अकेला रखना चाहिए| तत्पश्चात् 4 से 6 मुख्य शाखायें चारों दिशाओं में बढ़ने देनी चाहिए| बेल के पेडों में विशेष सधाई की आवश्यकता नहीं पड़ती है| परन्तु सूखी तथा कीडों एवं बीमारियों से ग्रसित टहनियों को समय-समय पर निकालते रखना चाहिए|
अन्तः फसलें- अर्धशुष्क क्षेत्र में कद्दू वर्गीय सब्जियों का अन्तः फसल लेने से अधिक आमदनी प्राप्त की जा सकती है|
बेल की खेती में रोग और कीट नियंत्रण
बेल के वृक्ष में कीट एवं व्याधियाँ कम लगती हैं| कुछ महत्वपूर्ण रोग एवं कीट की रोकथाम का वर्णन निम्नलिखित है, जैसे-
रोग एवं नियंत्रण-
बेल कैंकर- यह रोग जैन्थोमोनस विल्वी बैक्टीरिया द्वारा होता है| प्रभावित भागों पर जलशिक्त धब्बे बनते हैं, जो बाद में बढकर भूरे रंग के हो जाते हैं| समय वृद्धि के साथ में पूर्व प्रभावित भाग का ऊत्तक गिर जाता है और पत्तियों पर छिद्र बन जाते हैं|
नियंत्रण- इस रोग की रोकथाम के लिये स्ट्रेप्टोसाइक्लीन (200 पीपीएम) को पानी में घोलकर 15 दिनों के अन्तराल पर छिडकाव करना चाहिये|
छोटे फलों का गिरना- इस रोग का प्रकोप फ्यूजेरियम नामक फफूंद द्वारा होता है तथा एक भूरा छोटा घेरा फल ऊपरी हिस्से पर विकसित होता है| डंठल एवं फल के बीच फफूंद विकसित होने से जुडाव कमजोर हो जाता है और फल गिर जाते हैं|
नियंत्रण- इसके नियंत्रण के लिए जब फल छोटे हों, कार्बेन्डाजिम (0.1 प्रतिशत) का दो छिडकाव 15 दिनों के अन्तराल पर करना चाहिए|
डाई बैक- इस रोग का प्रकोप लेसियोडिप्लोडिया नामक फफूंद द्वारा होता है| इस रोग में पौधों की टहनियाँ ऊपर से नीचे की तरफ सूखने लगती है| टहनियों एवं पत्तियों पर भूरे धब्बे नजर आते हैं एवं पत्तियाँ गिर जाती हैं|
नियंत्रण- रोग के नियंत्रण के लिए सूखी टहनियों को छांटकर कॉपर आक्सीक्लोराइड (0.3 प्रतिशत) का दो छिडकाव 15 दिनों के अन्तराल पर करना चाहिए|
फलों का गिरना व आन्तरिक विगलन- बेल के बडे फल अप्रैल से मई माह में बहुतायत में गिरते हैं| गिरे बेलों में आंतरिक विगलन के लक्षण पाये जाते हैं| साथ ही बाह्य त्वचा में फटन भी पायी जाती है|
नियंत्रण- इस रोग के नियंत्रण के लिए बोरेक्स 300 ग्राम प्रति वृक्ष का प्रयोग करना चाहिए| साथ ही 1 प्रतिशत बोरेक्स का 2 बार छिडकाव 15 दिनों के अंतराल पर फलों की छोटी अवस्था में करना चाहिए|
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कीट एवं नियंत्रण-
बेल को बहुत कम कीट नुकसान पहुंचाते हैं| पर्ण सुरंगी एवं पर्ण भक्षी ईल्ली थोडा हानि पहुंचाते हैं| इन कीटों की रोकथाम हेतु रोगर (0.1 प्रतिशत) का छिडकाव एक सप्ताह के अन्तराल पर करना चाहिये|
बेल के फल तुडाई एवं उपज
फल फरवरी से मई माह में तोडने योग्य हो जाते हैं| जब फलों का रंग गहरे हरे रंग से बदल कर पीला हरा होने लगे तब फलों की तुडाई 2 सेंटीमीटर डण्ठल के साथ करनी चाहिए| तोडते समय इस बात का ध्यान रखना चाहिये कि फल जमीन पर न गिरने पाये अन्यथा फलों की त्वचा चिटक जाती है तथा भण्डारण के समय इन चिटके भागों से सडन प्रारम्भ हो जाती है| कलमी पौधे में 3 से 4 वर्षों में फलत प्रारम्भ हो जाती है, जबकि बीजू पेड़ों में 7 से 8 वर्ष में होती है| फलों की संख्या वृक्ष के आकार के साथ बढती जाती है|
बेल फसल की उपयोगिता
यह एक ऐसा फल वृक्ष है जिसका प्रत्येक भाग उपयोगी है| मुख्य तथा कृषिगत एवं घरेलू फर्नीचर बनाने के काम आते हैं| कागदीय गूदा बाउन पेपर बनाने के लिए उपयोग में लाया जाता है| हरी पत्ती चारे के रूप में तथा सूखी पत्ती का चूर्ण अनाज भण्डारण में उपयोग किया जाता है| बेल के बीज पत्ती का तेल जीवाणुनाशक एवं कवकनाशी गुण पाया जाता है|
गोंद का उपयोग चिपकाने हेतु वाटर प्रूफिंग और ऑयल इमलसन में उपयोग में लाया जाता है| गुदा खाने एवं परिरिक्षति खाद्य पदार्थ बनाने में उपयोग में लाया जाता है| जड़, तने की छाल पुष्प एवं पत्ती का उपयोग आयुर्वेदिक दवाओं में किया जाता है| इसके गूदे तथा जड़ में मारमोलोसिन तथा सोरोलिन पाया जाता है| जिसका उपयोग औषधि के बनाने में काम आता है|
पौष्टिक गुण- इसके फल में विभिन्न प्रकार के पौष्टिक तत्व प्रचुर मात्रा में पाये जाते हैं| बेल का पका हुआ फल विटामिन ए, बी, प्रोटीन, कैरोटिन तथा खनिज लवण का अच्छा स्त्रोत है| बेल के फल में विटामिन बी की मात्रा सेब, आम और केले से भी अधिक पायी जाती है|
प्रति 100 ग्राम पके हुए बेल के गूदे में विभिन्न पौष्टिक तत्वों जैसे कि नमी 61.50 ग्राम, पोटीन 1.80 ग्राम, वसा 0.30 ग्राम, खनिज लवण 1.70 ग्राम, कार्बोहाइड्रेड 31.80 मिलीग्राम, कैरोटिन 55.00 मिलीग्राम, थायमिन 0.13 मिलीग्राम, शयबोकलेविन 1.19 मिलीग्राम, नियासिन 1.1 मिलीग्राम तथा विटामिन सी 8.0 मिलीग्राम पाया जाता है| बेल में राइवोफ्लेविन अन्य फलों से ज्यादा मात्रा में पाया जाता है|
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