तिल तिलहनी फसलों में एक प्रमुख स्थान रखती है| तिल को अनेक प्रकार के व्यंजनों, उत्पादों और तेल के रूप में उपयोग किया जाता है| इसलिए तिल हमारे लिए अतिमहत्वपूर्ण तिलहनी फसल है| इसकी सफलतम खेती से अधिकतम उत्पादन लेने के लिए उचित रख-रखाव और देखभाल की जरूरत पड़ती है| तिल की फसल में कुछ प्रमुख कीट, रोग तथा खरपतवार समय-समय पर हानि पहुँचाते हैं| जिनका सामयिक प्रबंधन न किया जाए तो पैदावार पर विपरीत प्रभाव पड़ता है|
इन नाशीजीवों के उचित नियंत्रण के लिए एकीकृत नाशीजीव प्रबंधन प्रक्रिया अपनाना लाभकारी रहता है| इस लेख में तिल में एकीकृत नाशीजीव प्रबंधन कैसे करें की आधुनिक तकनीक का उल्लेख किया गया है| तिल की उन्नत खेती की पूरी जानकारी के लिए यहाँ पढ़ें- तिल की खेती- किस्में, रोकथाम और पैदावार
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तिल फसल के नाशीजीव
तिल का संपुट वेधक
पहचान- इस कीट का शलभ मध्यम आकार का होता है, जिसका पंख विस्तार 1.5 सेंटीमीटर होता है| इसके अगले पंख पीले रंग के होते हैं, जिन पर लाल रंग की टेढ़ी-मेढ़ी रेखाएं बनी होती हैं|
जीवन चक्र- मादा कीट 125 से 150 अंडे पौधों के कोमल भागों पर देती है| ये हरे रंग के होते हैं, तीन से पांच दिन में अंडों से लार्वा निकलते हैं| ये पहले मुलायम पत्तियों को खुरच कर खाते हैं| उसके बाद कई पत्तियों को आपस में जोड़ कर घर बना लेते हैं तथा उनको अन्दर से खाते रहते हैं| पांच निर्मोक रूप के बाद लार्वा पत्तियों पर या मिट्टी में जाकर प्यूपा में बदल जाता है| एक पीढ़ी पूरी होने में लगभग 25 दिन लगते हैं| इनकी एक वर्ष में लगभग 14 पीढ़ियां पायी जाती हैं|
क्षति का स्तर- प्रारंभ में अंडे से निकले लार्वा तिल फसल के कोमल तने और पत्तियों को खाते हैं, बाद में फलियों में छेद बनाकर बीजों को खाते हैं| मई से जून माह में लार्वा काफी सक्रिय होते हैं| ये पौधे की पूरी पत्तियों को खा जाते हैं|
कृषिगत प्रबंधन-
1. प्रकाश प्रपंच का प्रयोग कर शलभ कीटों को नष्ट कर देना चाहिए|
2. तिल फसल में प्रभावित पौधों की पत्तियों को तोड़कर नष्ट कर देना चाहिए|
3. खड़ी तिल फसल में निराई-गुड़ाई करते रहने से प्यूपा को नष्ट किया जा सकता है|
जैविक प्रबंधन- ट्राइकोग्रेमा अंड परजीवी के 50,000 कीट प्रति हैक्टर की दर से छोड़ने चाहिए|
रासायनिक प्रबंधन- एण्डोसल्फान 35 ई सी, 1.5 लीटर को पानी में मिलाकर प्रति हेक्टेयर की दर से छिडकाव करना चाहिए या मोनोक्रोटोफास 2 मिलीलीटर मात्रा को प्रति लीटर पानी में मिलाकर छिड़काव करना चाहिए|
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तिल का श्येन शलभ
पहचान- यह बड़े आकार का कीट है| इसका पंख विस्तार 10 से 12 सेंटीमीटर होता है| इस कीट का रंग लाली लिए हुए भूरा होता है| इसके अगले पंखों पर गहरे भूरे और पिछले पंखों पर पीले रंग के धब्बे होते हैं|
जीवन-चक्र- मादा लार्वा प्रजनन के बाद अपने अंडे तिल फसल में पत्तियों की निचली सतह पर एक-एक करके देती है| अंडे गोलाकार और आकार में बड़े होते हैं| अंडों से 3 से 6 दिन में इल्लियां निकलती हैं| लगभग 50 से 60 दिन में इल्ली 5 निर्मोक रूप के बाद पूर्ण रूप से विकसित हो जाती है| पूर्ण विकसित इल्ली प्यूपा में परिवर्तित हो जाती है| लगभग 15 से 22 दिन बाद प्यूपा से वयस्क कीट बाहर निकलता है तथा प्रजनन कर नयी संतति को जन्म देता है| इस कीट की एक वर्ष में लगभग 3 पीढ़ियां पायी जाती है|
क्षति का स्तर- अंडे से निकलने के बाद सूड़ी पत्तियों को खाती है| पौधों की अधिकतर पत्तियां समाप्त हो जाने के कारण पौधे की वृद्धि और विकास रूक जाता है, जिससे पैदावार में भारी कमी हो जाती है|
कृषिगत प्रबंधन-
1. इसके लार्वा को प्रकाश प्रपंच द्वारा एकत्र कर नष्ट कर देना चाहिए|
2. इसकी इल्ली का आकार बड़ा होता है, इसलिए इनको पकड़ कर नष्ट किया जा सकता है|
रासायनिक प्रबंधन- क्विनालफॉस की 2 मिलीलीटर मात्रा प्रति लीटर पानी के साथ मिलाकर आवश्यकतानुसार 7 दिन के अन्तराल पर छिड़काव करना चाहिए या डाइमेथोएट की 1.5 मिलीलीटर मात्रा प्रति लीटर पानी के साथ मिलाकर छिड़काव करना चाहिए|
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गाल मिज या तिल की पिटिका मक्खी
पहचान- यह छोटे आकार की मक्खी है| यह लगभग 0.5 सेंटीमीटर लम्बी होती है| इसके शरीर का रंग लाल होता है|
जीवन-चक्र- मादा मक्खी प्रजनन के बाद अपने अंडे कलियों, फलों, पत्तियों या शाखाओं पर देती है, लगभग 4 दिन बाद अंडों से मैगट निकलते हैं| ये सफेद रंग के होते हैं| मैगट फूलों के विभिन्न भागों को खाता है और कलियों में विशेष प्रकार की विकृति या पिटिकाएं उत्पन्न करता है| लगभग 15 दिन बाद पूर्ण विकसित मैगट प्यूपा में परिवर्तित हो जाता है| प्यूपा काल लगभग एक सप्ताह का होता है| एक पीढ़ी पूरी होने में लगभग 35 दिन का समय लगता है| वर्ष भर में इसकी लगभग 6 पीढ़ियां पायी जाती हैं|
क्षति का स्तर- इस कीट की मैगट अवस्था ही मुख्य रूप से तिल फसल के पौधों के लिए हानिकारक होती है| अंडे से निकलने के बाद मैगट कलियों को खाकर इनमें विशेष प्रकार की विकृति उत्पन्न कर देते हैं, जिससे उनमें न तो फूल आते हैं और न ही फल बनते हैं|
कृषिगत प्रबंधन-
1. पिटिकाओं को एकत्र कर नष्ट कर देना चाहिए|
2. गंभीर रूप से प्रभावित पौधों को जड़ से उखाड़ कर नष्ट कर देना चाहिए|
रासायनिक प्रबंधन- तिल फसल के फूल बनने के लगभग एक सप्ताह पहले खेत में कार्बोफ्युरॉन की 25 किलोग्राम मात्रा का प्रति हैक्टर की दर से बुरकाव करना चाहिए या मोनोक्रोटोफॉस की 1.5 लीटर मात्रा को 700 लीटर पानी के साथ मिलाकर छिड़काव करना चाहिए|
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तिल फसल के प्रमुख रोग
उकठा रोग
पहचान- यह रोग कवक जनित है| यह पौधे की किसी भी अवस्था में लग सकता है| इसमें तिल फसल के पौधे की निचली पत्तियों पर लक्षण दिखाई देते हैं, जो धीरे-धीरे ऊपर की ओर बढ़ते जाते हैं| इस रोग में पत्तियां पीली हो जाती हैं| अधिक संक्रमण होने पर पूरी पत्तियां गिर जाती हैं| परन्तु जड़ नहीं सड़ती है|
प्रबंधन-
1. उकठा अवरोधी उपलब्ध प्रजातियों की बुआई करनी चाहिए|
2. फसलचक्र अपनाना चाहिए|
3. इस रोग से ग्रसित पौधों को एकत्रित कर नष्ट कर देना चाहिए|
4. थिरम या कार्बेन्डाजिम या ट्राइकोडर्मा से बीजशोधन करना चाहिए|
5. यह रोग भूमि जनित है, इसलिए भूमि शोधन और बीज शोधन से भी काफी हद तक इस रोग से बचा जा सकता है|
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भूमि शोधन- भूमि शोधन के लिये फॉस्फेटिका कल्चर 2.5 किलोग्राम और एजेटोबैक्टर 2.5 किलोग्राम और ट्राइकोडर्मा पाउडर 2.5 किलोग्राम इन तीनों जैविक कल्चरों को एक एकड़ खेत के लिये 100 से 120 किलोग्राम गोबर की सड़ी खाद में मिलाकर 4 से 5 दिनों के लिये जूट के बोरे से ढकने के बाद खेत की तैयारी में अन्तिम जुताई के समय छिटक कर तुरन्त मिट्टी में मिला देते हैं| इस तरह भूमि शोधन करने से निम्न लाभ होते हैं, जैसे-
1. मिट्टी के लाभदायक सूक्ष्म जीवों की संख्या में वृद्धि होती है|
2. वायुमण्डल की नाइट्रोजन को पौधों की जड़ों में और मिट्टी में संचित होने में सहायता मिलती है|
3. पौधों की दैहिक क्रिया में वृद्धि नियामकों, ऑक्जिन तथा विटामिन की वृद्धि होती है|
4. मिटटी में उपस्थित न उपलब्ध होने वाले पोषक तत्वों को उपलब्ध कराने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाता है|
5. मिटटी संरचना में सुधार होता है और रोग-रोधक क्षमता में वृद्धि होती है|
बीज शोधन- बीजशोधन के लिये 2.5 ग्राम थिरम या 2.5 ग्राम कार्बेन्डाजिम या 5 ग्राम ट्राइकोडर्मा स्पोर में से किसी एक दवा को प्रति किलोग्राम बीज की दर से लेकर किसी साफ घड़े में बीज और दवा डालकर पॉलीथीन से मुँह बांधकर अच्छी तरह बीज पर दवा लगाते हैं| आवश्यकतानुसार घड़े में थोड़ा पानी दवा चिपकने के लिये मिलाते हैं तथा बीज को किसी साफ सतह पर निकालकर दूसरे दिन बुआई करते हैं|
बीज शोधन के लाभ और सावधानियाँ- इससे तिल फसल में जोरदार और ज्यादा जमाव होता है और बीज से होने वाले रोगों से रक्षा होती है एवं मिट्टी से पैदा होने वाली बीमारियों को कम करता या रोकता है| रासायनिक विधि में रसायनों की निर्धारित मात्रा ही प्रयोग करनी चाहिये, दीमक या चींटी से होने वाले नुकसान के लिए बीज को 3 मिलीग्राम प्रति किलोग्राम क्लोरोपाइीफॉस नाम की दवा से उपचारित करके बोना चाहिए|
एक से अधिक दवाओं से बीज शोधन करने में एफआईआर क्रम के अनुसार ही प्रयोग करना चाहिए, यानि की एफ- फॅन्जीसाइड (फफूंदनाशी) से फिर आई- इन्सेक्टिसाइड (कीटनाशी) से और अन्त में आर- राइजोबियम कल्चर (बायो एजेन्ट) के क्रम में शोधन करना चाहिए|
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झुलसा रोग
पहचान- इस रोग का प्रकोप भी तिल फसल की किसी भी अवस्था में हो सकता है| मुख्यतः यह बीज जनित रोग है| इस रोग में पत्तियों पर छोटे, भूरे, पानीदार, गोल, अनियमित, समकेन्द्रीय गोल आकार के 1 से 8 मिलीमीटर व्याय वाले धब्बे दिखाई देते हैं| मिट्टी में अधिक नमी होने से धब्बे का आकार बढ़ता है तथा उसकी संख्या भी बढ़ती है| इसके कम संक्रमण से पत्तियां झड़ती है और अधिक संक्रमण से पूरा पौधा मर जाता है|
प्रबंधन-
1. तिल की उपलब्ध प्रतिरोधी उन्नत किस्मों की बुआई करनी चाहिए|
2. यदि संभव हो तो सूरजमुखी के साथ तिल की अन्तरवर्ती फसल के रूप में खेती करनी चाहिए|
3. रोग ग्रसित फसल अवशेषों को नष्ट कर देना चाहिए|
4. बीज की बुआई थिरम, कार्बेन्डाजिम या ट्राइकोडर्मा से बीजशोधन करके ही बोना चाहिए|
5. तिल फसल में रोग के लक्षण दिखाई देने पर 0.1 प्रतिशत थायोफिनेट मिथाइल का 3 बार 15 दिनों के अनतराल पर छिड़काव करना चाहिए|
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जीवाणु झुलसा रोग
पहचान- यह रोग भी तिल फसल में किसी भी अवस्था में आ सकता है| इस रोग में पत्तियों पर पानीदार, छोटे, अनियमित धब्बे दिखाई पड़ते हैं, जो बाद में भूरे हो जाते हैं| पत्तियां सूख जाती हैं तथा पौधे से गिर जाती हैं| यह रोग बीज जनित है, जो वर्षा के पानी, तापमान और आर्द्रता से फैलता है|
प्रबंधन-
1. फसल चक्र सिद्धान्त अपनाना चाहिए|
2. उपलब्ध प्रतिरोधी किस्मों की बुआई करनी चाहिए|
3. तिल की बुआई समय पर करनी चाहिए|
4. रोग ग्रसित फसल अवशेषों को नष्ट कर देना चाहिए|
5. बुआई से पहले बीज को एग्रीमाइसीन या स्ट्रेप्टोमाइसीन 0.05 प्रतिशत के घोल में 30 मिनट तक डूबोकर बुआई करनी चाहिए|
6. तिल फसल में रोग के लक्षण दिखाई देने पर स्ट्रेप्टोसाइक्लीन 500 पी पी एम का पत्तियों पर छिड़काव करना चाहिए|
जड़ सड़न
पहचान- यह रोग फंफूदों द्वारा फैलता है| इसकी फंफूद पहले तिल फसल के अंकुरित पौधे को खाती है, फिर तने मुलायम हो जाते हैं| जिससे पौधा खड़ा नहीं रह पाता और गिर कर मर जाता है| इस रोग में तने पर भूरे काले लम्बे धब्बे दिखाई देते हैं| जो लम्बाई में बढ़ जाते हैं तथा तना मुड़ जाता है, जिससे पौधा मर जाता है|
प्रबंधन-
1. फसल चक्र अपनाना चाहिए|
2. तिल फसल के रोग ग्रसित पौधे को एकत्र कर नष्ट कर देना चाहिए|
3. बीज की बुआई से पहले थिरम, कार्बेन्डाजिम या ट्राइकोडर्मा से शोधित करके बोना चाहिए|
4. तिल फसल में रोग के लक्षण दिखाई देते ही 15 दिन के अनतराल थायोफिनेट मिथाइल 0.1 प्रतिशत का छिड़काव करना चाहिए|
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तिल फाइलोझी
पहचान- इस रोग में फूल के विभिन्न भाग हरे पत्ती दार संरचना में बदल जाते हैं| कई बार तिल फसल के पूरे फूल ही छोटे मुड़े हुई पत्तियों में बदल जाते हैं| छोटी-छोटी फलियां बनती हैं, जिनमें बीज नहीं बनते| यह रोग रस चूसक कीट जैसिड द्वारा फैलाया जाता है|
प्रबंधन-
1. तिल एवं बाजरा को 3:1 के अनुपात में उगाना चाहिए|
2. रोग ग्रसित पौधों को दिखते ही नष्ट कर देना चाहिए|
3. जैसिड की रोकथाम के लिए डाई मेथोएट 0.03 प्रतिशत बुआई के 30, 40 और 60 दिन बाद छिड़काव करना चाहिए|
चूर्णीय आसिता रोग
पहचान- इस रोग में तिल फसल के संक्रमित पौधे की पत्तियों पर छोटे कपास के समान धब्बे दिखाई पड़ते हैं तथा पौधा परिपक्वता से पहले ही पत्ती विहीन हो जाता है|
प्रबंधन-
1. तिल तथा बाजरा को 3:1 के अनुपात में उगाना चाहिए|
2. तिल की उपलब्ध प्रतिरोधी उन्नत किस्मों की बुआई करनी चाहिए|
3. फसल अवशेषों को नष्ट कर देना चाहिए|
4. लक्षण दिखाई देने पर घुलनशील गंधक 0.2 प्रतिशत का छिड़काव करना चाहिए|
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