जलवायु परिवर्तन, औद्योगिकीकरण तथा बढ़ते वाहनों की संख्या में लगातार वृद्धि हो रही है| परिणामस्वरूप बढ़ती ग्रीन हाउस गैसों के उत्सजर्न से वैश्विक तापमान में वृद्धि और जलवायु परिवर्तन से समस्त विश्व चिंतित है| चिंता का विषय इसलिए भी है, क्योंकि भारत एक कृषि प्रधान देश है, एवं भारतीय अर्थ व्यवस्था की आधारशिला खेती ही है| आज खेती में भी मशीनीकरण हो रहा है, जिससे कार्बन डाईआक्साईड और नाइट्रस आक्साइड जैसी गैसों के अधिक उत्सर्जन की वजह से वायुमंडल गरम हो रहा है|
नासा की एक रिपोर्ट के अनुसार वायुमंडल का औसत तापमान 0.8 डिग्री सेल्सियस बढ़ रहा है| गर्माती भूमि का सबसे ज्यादा प्रभाव खेती के क्षेत्र पर पड़ रहा है| खाद्य तथा खेती संगठन (एफ ए ओ) के आकड़ों से पता चलता है, की भारत उन प्रथम 10 देशों में है, जो जलवायु परिवर्तन से सबसे ज्यादा प्रभावित होंगे| एक अध्ययन के अनुसार सन् 2050 तक शीतकाल का तापमान लगभग 3 से 4 डिग्री सेल्सियस तक बढ़ सकता है|
इससे मानसूनी वर्षा में 10 से 20 प्रतिशत तक की कमी होने का अनुमान है| वर्षा की मात्रा के परिवर्तन होने से फसलों की उत्पादकता पर भी प्रतिकूल प्रभाव पड़ेगा (उदाहरण के तौर पर महाराष्ट्र का विदर्भ क्षेत्र आज पूर्ण रूप सूखे की चपेट में है)| जलवायु में होने वाला परिवर्तन हमारी राष्ट्रीय आय को प्रभावित कर रहा है| राष्ट्रीय आय में खेती का हिस्सा पिछले तीन सालों में 1.5 प्रतिशत तक कम हुआ है|
यह भी पढ़ें- फ्लाई ऐश (राख) का खेती में महत्व
अमेरिकी संस्था नासा ने चिंताजनक शोध जारी किया है| शोध यह है, कि पिछले एक दशक के दौरान समूचे उत्तर भारत में हर साल औसतन भूजल स्तर एक फुट नीचे गिरा है, इस शोध का चिंताजनक पहलू यह तो है, कि भूजल स्तर गिरा है, लेकिन उससे अधिक चिंताजनक पहलू यह है, कि इसके लिए सामान्य मानवीय गतिविधियों को जिम्मेदार बताया जा रहा है|
2009 को प्रकाशित एक पत्रिका की एक रिपोर्ट के मुताबिक उपग्रह आधारित चित्रों से पता चला है, कि भारत के जल स्रोत तथा भण्डार तेजी से सिकुड़ रहे हैं और जल्दी ही किसानों को परम्परागत सिंचाई के तरीके छोड़कर पानी की खपत कम रखने वाले आधुनिक तरीके एवं फसलें अपनानी होंगी| आईपीसीसी की रिपोर्ट में चेतावनी दी गयी है कि ग्लोबल वार्मिंग के चलते बड़े स्तर पर जल तथा खाद्यान्न की कमी हो सकती है| कुछ क्षेत्रों में तो 50 प्रतिशत तक खाद्यान्न की पैदावार कम हो सकती है|
एक शोध के अनुसार यदि वातावरण का तापमान औसत 1 डिग्री सेल्सियस बढ़ता है, तो इससे गेहूं की पैदावार 17 प्रतिशत तक कम हो जाती है| वन्य जीवन पर भी जलवायु परिवर्तन का घातक प्रभाव पड़ेगा, ग्लेशियरों के पिघलने से एक ओर उन क्षेत्रों में पानी की कमी हो जाएगी जिनके लिए ये ग्लेशियर पेयजल के स्रोत हैं, दूसरी और समुद्र का जलस्तर भी बढ़ेगा| इस सदी के अंत तक समुद्रों का जलस्तर 7 से 23 इंच यानि की 18 से 59 सेंटीमीटर तक बढ़ सकता है|
यह भी पढ़ें- हरी खाद उगाकर मिट्टी की उपजाऊ शक्ति को बढ़ायें
सिर्फ 4 से 5 इंच की बढ़ोत्तरी से ही कई दक्षिणी समुद्री द्वीपों में बाढ़ की स्थिति आ सकती है|एवं दक्षिण पूर्व एशिया का विस्तृत भूभाग जलमग्न हो सकता है| करोड़ों की संख्या में लोग समुद्रों के औसत जलस्तर से तीन फीट नीचे के दायरे में आ सकते हैं| इसके अलावा प्राकृतिक आपदाओं का खतरा भी बढ़ जायेगा| दुनिया के कई हिस्सों में शक्तिशाली तूफान, बाढ़, सुनामी, तापतरंग जैसी बातें आम हो जायेंगी|
एक ओर हमें इन आपदाओं से निपटने के लिये तैयार होना होगा, वहीं अन्य महामारियां जैसे- मलेरिया, हैजा, डेंगू, डायरिया इत्यादि से भी निबटाना होगा, ज्यादा गर्मी होने से विश्व के घने जंगलों में आग लगने की संभावना भी बढ़ जायेगी जो कई देशों के लिये घातक होगी| कोपेनहेगन में आयोजित सम्मेलन में कृषि वैज्ञानिक डॉ. एम.एस. स्वामीनाथन ने भारतीय कृषि पर जलवायु परिवर्तन के पड़ने वाले प्रभावों के बारे में कहा कि इससे लगभग 64 प्रतिशत लोगों पर प्रभाव पड़ेगा, जिनके जीवनयापन का साधन खेती है और सबसे बड़ा डर खाद्य सुरक्षा को लेकर है|
खेती और जलवायु परिवर्तन सबसे ज्यादा प्रतिकूल प्रभाव सर्वहारा वर्ग पर पड़ रहा है| जिनकी कुल आय का 50 प्रतिशत से भी ज्यादा हिस्सा अन्न, जल और स्वास्थ्य सम्बन्धित क्षत्रों पर खर्च होता है| ऐसा अनुमान है, कि सूखे के कारण खरीफ की मुख्य फसलों चावल एवं दलहन और तिलहन में 20 प्रतिशत तक की कमी हो सकती है| देश में खाद्य उत्पादन में 5 प्रतिशत कमी की संभावना जी डी पी को एक प्रतिशत तक प्रभावित करेगी|
यह भी पढ़ें- राइजोबैक्टीरिया का उपयोग करें
वर्तमान में मानसून के समय में बदलाव की वजह से 51 प्रतिशत तक खेती भूमि प्रभावित हुई है| तापमान के बढ़ने से रबी की फसलों के पकने में परिवर्तन आया है| तापमान में तीव्र वृद्धि से फसलों में एकदम बालियां आ जाती है, जिससे गेहूं और चने की फसलों के दाने बहुत पतले हो गए एवं उत्पादकता घट गई| एक अध्ययन के अनुसार यदि तापमान में 1 से 4 डिग्री सेल्सियस तक वृद्धि होती है, तो खाद्य पदार्थों के उत्पादन में 24 से 30 प्रतिशत तक की कमी आ सकती है|
जबकि भारत देश की जनसंख्या बढने से सभी खाद्य पदार्थों की मांग में वृद्धि होगी| परिणामस्वरूप खाद्य संकट हमारे सामने एक भयंकर समस्या होगी| जलवायु परिवर्तन से न केवल फसलों की उत्पादकता प्रभावित होगी बल्कि उनकी पौष्टिकता पर भी प्रतिकूल प्रभाव पड़ेगा| फल और सब्जियों वाली फसलों में फूल तो खिलेंगे लेकिन उनसे फल या तो बहुत कम बनेंगे या उनकी पौष्टिकता प्रभावित होगी|
हमारे देश का विश्व प्रसिद्ध चावल बासमती भी जलवायु परिवर्तन के दुष्प्रभावों से बच नहीं पाएगा तापमान वृद्धि से इसकी खुशबू प्रभावित होगी|जलवायु परिवर्तन से खेती के विभिन्न पहलू निम्न प्रकार से प्रभावित हो सकते हैं, जैसे-
जलवायु परिवर्तन का खेती पर प्रभाव
अध्ययनों के आधार पर कृषि वैज्ञानिकों ने पाया कि प्रत्येक 1 डिग्री सेल्सियस तापमान बढ़ने पर गेहूं का उत्पादन 4 से 5 करोड़ टन कम होता जाएगा| इसी प्रकार 2 डिग्री सेल्सियस तापमान बढ़ने से धान का उत्पादन 0.75 टन प्रति हेक्टेयर कम हो जायेगा| कृषि विभाग के अनुसार गेहूं की पैदावार का अनुमान 82 मिलियन टन था, जो अधिक तापमान की वजह से घटकर 81 टन मिलियन टन रह जायेगा|
जलवायु परिवर्तन से फसलों की उत्पादकता ही प्रभावित नहीं होगी बल्कि उनकी गुणवत्ता पर भी नकारात्मक प्रभाव पड़ेगा| अनाज में पोषक तत्वों एवं प्रोटीन की कमी पाई जाएगी जिसके कारण संतुलित भोजन लेने पर भी मनुष्यों का स्वास्थ्य प्रभावित होगा|
यह भी पढ़ें- सब्जियों की नर्सरी (पौधशाला) तैयार कैसे करें
जलवायु परिवर्तन का मिट्टी पर प्रभाव
भारत जैसे कृषि प्रधान देश के लिए मिट्टी की संरचना और उसकी उत्पादकता अहम स्थान रखती है| तापमान बढ़ने से मिट्टी की नमी तथा कार्यक्षमता प्रभावित होगी| मिट्टी में लवणता बढेगी एवं जैव विविधता घटती जाएगी| तापमान बढने से मिट्टी में उपस्थित सुक्ष्म जीवों द्वारा कार्बन की अपघटन क्रिया में वृद्धि होगी| परिणामस्वरूप मिट्टी में उपस्थित कार्बन और पोषक तत्वों का ह्रास बहुत जल्दी ही हो जायेगा, जिससे मिट्टी बंजर हो जाएगी|
जलवायु परिवर्तन का कीट और रोगों पर प्रभाव
जलवायु परिवर्तन के कीट एवं रोगों की मात्रा बढेगी| गर्म जलवायु कीट पतंगों की प्रजनन क्षमता की वृद्धि में सहायक है| कीटों में वृद्धि के साथ ही उनके नियंत्रण हेतु अत्यधिक कीटनाशकों का प्रयोग किया जाएगा जो जानवरों तथा मनुष्यों में अनेक प्रकार की बीमारियों को जन्म देगा, वैसे भी गेहूं, मटर, मसूर और चने में तापमान बढने से फफूद जनित रोग की संभावना बढ़ने लगती है|
जलवायु परिवर्तन का जल संसाधनों पर प्रभाव
जलवायु परिवर्तन का सबसे ज्यादा प्रभाव जल संसाधनों पर पड़ेगा, जल आपूर्ति की भयंकर समस्या उत्पन्न होगी और सूखे एवं बाढ़ की स्थिति निर्मित होगी| अर्द्धशुष्क क्षेत्रों में शुष्क मौसम अधिक लम्बा होगा, जिससे फसलों की उत्पादकता पर प्रतिकूल प्रभाव पड़ेगा| वर्षा की अनिश्चितता भी फसलों के उत्पादन को प्रभावित करेगी, अधिक तापमान और वर्षा की कमी से सिंचाई हेतु भू-जल संसाधनों का अधिक दोहन किया जाएगा|
जिससे धीरे-धीरे भू-जल इतना ज्यादा नीचे चला जाएगा कि उसका दोहन करना आर्थिक दृष्टि से अलाभकारी सिद्ध होगा, जैसा पंजाब, हरियाणा और मध्य प्रदेश के बहुत से विकास खण्डों में हो रहा है| हमारी खेती पर पड़ने वाले जलवायु परिवर्तन के प्रभाव को कम करने के अनेक उपाय हैं, जिनको अपनाकर हम कुछ हद तक जलवायु परिवर्तन के प्रभावों से अपनी खेती को बचा सकते हैं| प्रमुख उपाय इस प्रकार हैं, जैसे-
खेतों में जल प्रबंधन-
तापमान वृद्धि के साथ फसलों में सिंचाई की अधिक आवश्यकता पड़ती है| ऐसे में जमीन में नमी का संरक्षण और वर्षा जल को एकत्रित करके सिंचाई हेतु प्रयोग में लाना, एक उपयोगी तथा सहयोगी कदम हो सकता है| वाटरशैड प्रबंधन के माध्यम से हम वर्षा के पानी को संचित कर सिंचाई के रूप में प्रयोग कर सकते हैं| इससे जहां एक ओर हमें सिंचाई की सुविधा मिलेगी वहीं दूसरी और भू-जल पुनर्भरण में भी मदद मिलेगी|
यह भी पढ़ें- ऑर्गेनिक या जैविक खेती क्या है, जानिए उद्देश्य, फायदे एवं उपयोगी पद्धति
जैविक और समग्रित खेती-
खेतों में रसायनिक खादों एवं कीटनाशकों के इस्तेमाल से जहाँ एक ओर मिट्टी की उत्पादकता घटती है, वहीं दूसरी और इनकी मात्रा भोजन श्रृंखला के माध्यम से मानव के शरीर में पहुंच जाती है| जिससे अनेक प्रकार की बीमारियां होती हैं| रसायनिक खेती से हरित गैसों के उत्सर्जन में भी वृद्धि होती है| इसलिए हमें जैविक खेती करने की तकनीकों पर अधिक से अधिक जोर देना चाहिए|
एकल कृषि की बजाय हमें समग्रित कृषि करनी चाहिए| एकल कृषि में जहां जोखिम अधिक होता है, वहीं समग्रित कृषि में जोखिम कम होता है| समग्रित खेती में अनेकों फसलों का उत्पादन किया जाता है| जिससे यदि एक फसल किसी प्रकोप से समाप्त हो जाए, तो दूसरी फसल से किसान की रोजी रोटी चल सकती है|
नई तकनीकों का विकास-
जलवायु परिवर्तन के गम्भीर दूरगामी प्रभावों को मध्यनजर रखते हुए ऐसे बीजों की किस्मों का विकास करना पड़ेगा जो नये मौसम के अनुकूल हों| हमें ऐसी किस्मों का विकसित करना होगा जो अधिक तापमान सूखे और बाढ़ की विभिषिकाओं को सहन करने में सक्षम हों|
फसली संयोजन में परिवर्तन-
जलवायु परिवर्तन के साथ-साथ हमें फसलों के प्रारूप और उनके बोने के समय में भी परिवर्तन करना पड़ेगा| मिश्रित खेती एवं इंटरक्रापिंग करके जलवायु परिवर्तन के खतरों से निपटा जा सकता है|
जलवायु परिवर्तन के दुष्प्रभावों से भारतीय कृषि को बचाने के लिए हमें अपने संसाधनों का न्यायसंगत प्रयोग करना होगा और भारतीय जीवन दर्शन को अपनाकर हमें अपने पारम्परिक ज्ञान को अमल में लाना पड़ेगा| अब इस बात की सख्त जरूरत है, कि हमें खेती में ऐसे पर्यावरण मित्र तरीकों को अहमियत देनी होगी, जिनसे हम अपनी मिट्टी की उत्पादकता को बरकरार रख सकें और अपने प्राकृतिक संसाधनों को बचा सकें|
यह भी पढ़ें- टपक (ड्रिप) सिंचाई प्रणाली क्या है, जानिए लाभ, देखभाल, प्रबंधन
यदि उपरोक्त जानकारी से हमारे प्रिय पाठक संतुष्ट है, तो लेख को अपने Social Media पर Like व Share जरुर करें और अन्य अच्छी जानकारियों के लिए आप हमारे साथ Social Media द्वारा Facebook Page को Like, Twitter व Google+ को Follow और YouTube Channel को Subscribe कर के जुड़ सकते है|
Leave a Reply