![केले की उन्नत किस्में](https://www.dainikjagrati.com/wp-content/uploads/2019/07/केले-की-उन्नत-किस्में.jpg)
केले की खेती के लिए देश और दुनिया में 300 से अधिक किस्में पाई जाती है| लेकिन इनमें से 15 से 20 क़िस्मों को ही व्यवसायिक तौर पर बागवानी के लिए उपयोग में लाया जाता है| केले की विभिन्न प्रजातियों को दो वर्गों में बाँटा गया है, पहला वे किस्में जो फल के रूप में खाने के लिए उगाई जाती है और दूसरा वे जो शाकभाजी के रूप में प्रयोग किये जाने के लिए उगाई जाती है|
पहले वर्ग में उगाई जाने वाली उन्नत किस्मे जैसे पूवन, चम्पा, अमृत सागर, बसराई ड्वार्फ, सफ़ेद बेलची, लाल बेलची, हरी छाल, मालभोग, मोहनभोग और रोबस्टा आदि प्रमुख है| इसी प्रकार शाकभाजी के लिए उगाई जाने वाली उन्नतशील प्रजातियों में मंथन, हजारा, अमृतमान, चम्पा, काबुली, बम्बई, हरी छाल, मुठिया, कैम्पियरगंज तथा रामकेला प्रमुख है|
केले की फसल से अच्छी उपज के लिए कृषक बन्धुओं को अपने क्षेत्र की प्रचलित और अधिकतम उत्पादन देने वाली किस्म का चयन करना चाहिए| इस लेख में प्रचलित और आकर्षक केले की उन्नत एवं संकर किस्मों की विशेषताओं और पैदावार की जानकारी का उल्लेख किया गया है| केले की वैज्ञानिक तकनीक से बागवानी की विस्तृत जानकारी के लिए यहाँ पढ़ें- केले की खेती कैसे करें
उन्नतशील किस्में
ड्वार्फ केवेन्डिस- इस केले की किस्म को भुसावली, बसराई, मारिसस, काबुली, सिन्दुरानी, सिंगापुरी जहाजी, मोरिस आदि नाम से जाना जाता है| यह भारत की सबसे महत्वपूर्ण किस्म है और व्यवसायिक खेती में उगाई जाने वाली क़िस्मों में सबसे बौनी किस्म है| इसका पौधा छोटा, फल बड़े, घूमे हुए, छिलका मोटा तथा फलों का रंग हरा होता है|
गूदा मुलायम और मीठा होता है| गुच्छे का औसतन भार 20 किलोग्राम होता है| इसकी भंडारण क्षमता अच्छी नही होती है| यह किस्म पर्णचित्ती रोग के प्रति असहनशील है तथा पनामा रोग हेतु पूर्ण प्रतिरोधी है| यह किस्म उपोष्ण जलवायु मे अच्छी पैदावार देती है और अन्य क़िस्मों की तुलना में सर्दी के प्रति सहनशील है|
रोबस्टा- इस केले की किस्म को बाम्बेग्रीन, हरीछाल, बोजीहाजी आदि नामो से अलग अलग प्रांतो मे उगाया जाता है| इस प्रजाति को पश्चिमी दीप समूह से लगाया गया है| पौघों की ऊंचाई 3 से 4 मीटर, तना माध्यम मोटाई हरे रंग का होता है| प्रति पौधे मे 10 से 19 गुच्छे के पुष्प होते हैं, जिनमें हरे रंग के फल विकसित होते है|
गुच्छे का वजन औसतन 25 से 30 किलोग्राम होता है| फल अधिक मीठे एवं आकर्षक होते हैं| फल पकने पर चमकीले पीले रंग के हो जाते है| यह किस्म लीफ स्पॉट बीमारी से काफी प्रभावित होती है| फलों की भंडारण क्षमता कम होती है|
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पूवन- इस केले की किस्म को चीनी चम्पा, लाल वेल्ची और कदली कोडन के नाम से जाना जाता है| इसका पौघा बेलनकार मध्यम ऊंचाई का 2.25 से 2.75 मीटर होता है| रोपण के 9 से 10 महीने बाद में पुष्पण प्रांरभ हो जाता है| इसमें 10 से 12 गुच्छे आते हैं| प्रत्येक गुच्छे में 14से 16 फल लगते है|
फल छोटे बेलनाकार एवं उभरी चोंच वाले होते हैं| फल का गूदा हाथी के दांत के समान सफेद और ठोस होता है| इसे अधिक समय तक भण्डारित किया जा सकता है| फल पकने के बाद भी टूटकर अलग नहीं होते|
नेन्द्रन- इस केले की किस्म की उत्पत्ति दक्षिण भारत से हुई है| इसे सब्जी केला या रजेली भी कहते हैं| इसका उपयोग चिप्स बनाने में सर्वाधिक होता है| इसका पौधा बेलनाकार मध्यम मोटा तथा 3 मीटर ऊंचाई वाला होता है| गुच्छे में 4 से 6 डंडल और प्रत्येक डंडल में 8 से 14 फल होते हैं|
फल 20 सेंटीमीटर लम्बा, छाल मोटी तथा थोड़ा मुड़ा और त्रिकोणी होता है| जब फल कच्चा होता है, तो इसमें पीलापन रहता है| परंतु पकने पर छिलका कड़क हो जाता है| इसका मुख्य उपयोग चिप्स एवं पाउडर बनाने के लिये किया जाता है|
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रस्थली- इस केले की प्रजाति को मालभोग अमृत पानी सोनकेला रसवाले आदि नामों से विभिन्न राज्यों मे व्यावसायिक रूप से उगाया जाता है| पौधे की ऊंचाई 2.5 से 3.0 मीटर होती है| पुष्पन 12 से 14 माह के बाद ही प्रारंभ होता है| फल चार कोण बाले हरे, पीले रगं के मोटे होते हैं|
छिलका पतला होता है, जो पकने के बाद सुनहरे पीले रगं के हो जाते हैं| केले का गुच्छा 15 से 20 किलोग्राम का होता है| फल अधिक स्वादिष्ट सुगन्ध पके सेब जैसी कुछ मिठास लिये हुये होते है| केले का छिलका कागज की तरह पतला होता है| इस प्रजाति की भण्डारण क्षमता कम होती है|
करपूरावल्ली- इसे बोन्था, बेन्सा एवं केशकाल आदि नामों से जाना जाता है| यह केले की किस्म किचन गार्डन में लगाने लिए उपयुक्त पायी गयी है| इसका पौधा 10 से 12 फीट लम्बा होता है| तना काफी मजबूत होता है| फल गुच्छे में लगते है| एक पौधे में 5 से 6 गुच्छे बनते हैं, जिसमें 60 से 70 फल होते हैं| इनका वजन 18 से 20 किलोग्राम होता है| फल मोटे नुकीले और हरे पीले रंग के होते हैं| यह चिप्स एवं पाउडर बनाने के लिये सबसे उपयुक्त प्रजाति है|
हरी छाल- इससे बोम्बे ग्रीन, रोबस्टा तथा पड्डा पच आरती भी कहते है| यह केले की किस्म महाराष्ट्र में बड़े पैमाने पर उगाई जाती है| यह ड्वार्फ के विनदश के उत्परिवर्तन से प्राप्त किस्म है| जिसके पौधे अर्ध लम्बे होते है| गुच्छे का औसत भार 20 किलोग्राम होता है| यह किस्म नम तटीय क्षेत्रो में अच्छी बृद्धि करती है|
हिल बनाना- दो प्रकार कि किस्मे विरुपाक्षी तथा सिरुमलाई तमिलनाडु कि विशेषता कहलाती है| गुच्छे का ओसत भार 12 किलो ग्राम होता है| इसकी फलन अवधि 14 माह कि होती है|
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संकर किस्में
सी ओ 1- इस केले की संकर किस्म को लड़न तथा कदली के विभिन्न संस्करणों के द्वारा प्राप्त किया गया है| फलन अवधि 14 माह कि है, इस किस्म के गुच्छे का ओसत 10 भार किलो ग्राम होता है|
एच 1- अग्निस्वार + पिसांग लिलिन, यह लीफ स्पॉट फ्यूजेरियम बीमारी निरोधक कम अवधि वाली उपर्युक्त किस्म है| यह बरोइंग सूत्र कृमि के लिए अवरोधक है| इस केले की संकर प्रजाति का पौधा मध्यम ऊंचाई का होता है, और इसमें लगने वाले गुच्छे का वजन 14 से 16 किलोग्राम का होता है| फल लम्बे, पकने पर सुनहरे या पीले रगं के हो जाते हैं| पकने पर इसमें हल्का खट्टा स्वाद रहता है| इसके तीन वर्ष के फसल चक्र में चार फसलें ली जा सकती हैं|
एच 2- इस केले की प्रजाति के पौधे लगभग 2.25 से 2.50 मीटर उंचे होते है| गुच्छे का भार लगभग 15 से 20 किलोग्राम होता है| हरे रंग के छोटे फलों में खट्टा-मिट्ठा स्वाद रहता है|
एफ एच आई ए 1- इस केले की संकर प्रजाति का अनुवान्सिक संघटन एएएबी होता है| यह पनामा विल्ट सिगाटोका रोग के लिए प्रतिरोधक क्षमता प्रदर्शित करती है| फल गुच्छे का आकार औसतन 18 से 20 किलोग्राम होता है|
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