चना की गुणवत्ता रोग एवं व्याधियों के प्रकोप से बहुत प्रभावित होती है| यह प्रोटीन का एक बहुत अच्छा स्रोत होने के कारण चना की खेती रोग एवं व्याधियों के प्रति बहुत संवेदनशील होती है| आमतौर पर उत्तरी, उत्तर-पूर्व और पूर्वी भाग में पत्ती वाले रोग का प्रकोप रहता है| जबकि मध्य और मैदानी भागों में जल वाले रोग चना की फसल को ज्यादा हानी पहुंचाते है|
यहां चना की खेती के कुछ रोग और उनका निदान कैसे करें की जानकारी दी गई है, जिसको संज्ञान में लाकर किसान भाई अपने चने की खेती को इन रोगों से बचा सकते है| यदि आप चने की खेती की अधिक जानकारी चाहते है, तो यहां पढ़ें- चने की खेती की जानकारी
उकठा या उखेड़ा रोग
यह चना की खेती का प्रमुख रोग है| उकठा रोग का प्रमुख कारक फ्यूजेरियम ऑक्सीस्पोरम प्रजाति साइसेरी नामक फफूद है| यह सामान्यतः मृदा तथा बीज जनित बीमारी है, जिसकी वजह से 10 से 12 प्रतिशत तक पैदावार में कमी आती है| यह एक दैहिक व्याधि होने के कारण पौधे के जीवनकाल में कभी भी ग्रसित कर सकती है|
यह फफूद बगैर पोषक या नियन्त्रक के भी मृदा में लगभग छः वर्षों तक जीवित रह सकती है| वैसे तो यह व्याधि सभी क्षेत्रों में फैल सकती है, परन्तु जहाँ ठण्ड अधिक और लम्बे समय तक पडती है, वहाँ पर कम होती है| यह व्याधि पर्याप्त मृदा नमी होने पर और तापमान 25 से 30 डिग्री सेन्टिग्रेड होने पर तीव्र गति से फैलती है| इस बीमारी के प्रमुख लक्षण निम्नांकित हैं, जैसे-
1. रोग ग्रसित चना के पौधे के उपरी हिस्से की पत्तियाँ और डंठल झुक जाते हैं|
2. चना का पौधा सूखना शुरू कर देता है और मरने के लक्षण दिखाई देने लगते हैं|
3. सूखने के बाद पत्तियों का रंग भूरा या तने जैसा हो जाता है|
4. वयस्क और अंकुरित पौधे कम उम्र में ही मर जाते हैं एवं भूमि की सतह वाले क्षेत्र में आंतरिक ऊतक भूरे या रंगहीन हो जाते हैं|
5. यदि तने को लम्बवत् चीरा लगाएगें तो तम्बाकू के रंग की तरह धारी दिखाई पड़ती है| लेकिन, यह पतली और लम्बी धारी तने के ऊपर दिखाई नहीं देती है|
रोकथाम-
1. चना की बुवाई उचित समय यानि अक्टूबर से नवम्बर के प्रथम सप्ताह तक करें|
2. गर्मियों मई से जून में गहरी जुताई करने से फ्यूजेरियम फफूंद का संवर्धन कम हो जाता है| मृदा का सौर उपचार करने से भी रोग में कमी आती है|
3. पाच टन प्रति हेक्टेयर की दर से कम्पोस्ट का प्रयोग करें|
4. बीज को मिट्टी में 8 से 10 सेंटीमीटर गहराई में गिराने से उखड़ा रोग का प्रभाव कम होता है|
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निम्नांकित फफूंदनाशी द्वारा बीज शोधन करें-
1. एक ग्राम कार्बेन्डाजिम (बाविस्टीन) या कार्बोक्सिन या 2 ग्राम थिराम और 4 ग्राम ट्राइकोडर्मा विरीडि प्रति किलोग्राम चना बीज की दर से बीजोपचार करें| इसी प्रकार, 1.5 ग्राम बेन्लेट टी (30 प्रतिशत बेनोमिल तथा 30 प्रतिशत थिराम) प्रति किलोग्राम बीज की दर से बीजोपचार मिट्टी जनित रोगाणुओं को मारने में लाभप्रद है|
2. चना की उकठा रोग प्रतिरोधी किस्में उगाएं जैसे- डी सी पी- 92-3, हरियाणा चना- 1, पूसा- 372, पूसा चमत्कार (काबुली), जी एन जी 663, के डब्ल्यू आर- 108, जे जी- 315, जे जी- 16 (साकी 9516), जे जी- 74, जवाहर काबुली चना- 1 (जे जी के- 1, काबुली), विजय, फूले जी- 95311 (काबुली)|
3. उकठा का प्रकोप कम करने के लिए तीन साल का फसल चक्र अपनाए| यानि की तीन साल तक चना नहीं उगाएं|
4. सरसों या अलसी के साथ चना की अन्तर फसल लें|
5. मिट्टी जनित और बीज जनित रोगों के नियंत्रण हेतु बायोपेस्टीसाइड (जैवकवकनाशी) टाइकोडर्मा विरिडी 1 प्रतिशत डब्लू पी या टाइकोडर्मा हरजिएनम 2 प्रतिशत डब्लू पी 2.5 किलोग्राम प्रति हेक्टेयर मात्रा को 60 से 75 किलोग्राम सड़ी हुई गोबर की खाद में मिलाकर हल्के पानी का छींटा देकर 7 से 10 दिन तक छाया में रखने के बाद बुवाई के पूर्व आखिरी जुताई पर भूमि में मिला देने से चना को मिट्टी बीज जनित रोगों से बचाया जा सकता है|
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शुष्क-मूल विगलन (ड्राई रूट रॉट)
चना का यह मिट्टी जनित रोग है, पौधों में संक्रमण राइजोक्टोनिया बटाटीकोला नामक कवक से फैलता है| मिट्टी नमी की कमी होने पर और वायु का तापमान 30 डिग्री सेंटिग्रेड से अधिक होने पर इस बीमारी का गंभीर प्रकोप होता है| सामान्यतया इस बीमारी का प्रकोप पौधों में फूल आने और फलियाँ बनते समय होता है| रोग से प्रभावित पौधों की जड़ें अविकसित एवं काली होकर सड़ने लगती हैं और आसानी से टूट जाती है|
जड़ों में दिखाई देने वाले भाग और तनों के आंतरिक हिस्सों पर छोटे काले रंग की फफूदी के जीवाणु देखे जा सकते हैं| संक्रमण अधिक होने पर पूरा पौधा सूख जाता है और रंग भूरा भूसा जैसा हो जाता है| जड़ें काली या भंगुर हो जाती हैं और कुछ या नगण्य जड़े ही बच पाती है|
रोकथाम-
1. फसल चक्र अपनायें|
2. चना बीज का फरूंदनाशक द्वारा बीजोपचार करने से बीमारी के शुरूआती विकास को रोका जा सकता है|
3. समय पर बुवाई करें, क्योंकि फूल आने के उपरान्त सूखा पड़ने और तीक्ष्ण गर्मी बलाघात से बीमारी का प्रकोप बढ़ता है|
4. सिंचाई द्वारा इस रोग को नियंत्रित किया जा सकता है|
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स्तम्भ मूल संधि विगलन (कॉलर रॉट)
चना में इस रोग का कारक स्क्लेरोशियम रॉल्सी नामक कवक है| इसका प्रकोप आमतौर पर सिंचित क्षेत्रों या बुवाई के समय मिट्टी में नमी की बहुतायत, भू-सतह पर कम सड़े हुए कार्बनिक पदार्थ की उपस्थिति, निम्न पी एच मान और उच्च तापक्रम 25 से 30 डिग्री सेंटिग्रेड होने पर अधिक होता है|
अंकुरण से लेकर एक-डेढ़ महीने की अवस्था तक पौधे पीले होकर मर जाते हैं| जमीन से लगा तना और जड़ की संधि का भाग पतला तथा भूरा होकर सड़ जाता है| तने के सड़े भाग से जड़ तक सफेद फफूद और कवक के जाल पर सरसों के दाने के आकार के स्कलेरोशिया (फफूद के बीजाणु) दिखाई देते हैं|
रोकथाम-
1. फफूंदनाशी द्वारा बीज शोधित करके बुवाई करें|
2. अनाज वाली फसलों जैसे- गेहूं, ज्वार, बाजरा को लम्बी अवधि तक फसल चक्र में अपनाएँ|
3. बुवाई से पूर्व पिछली फसल के सड़े-गले अवशेष और कम सड़े मलबे को खेत से बाहर निकाल दें|
4. बुवाई और अंकुरण के समय खेत में अधिक नमी नहीं होनी चाहिए|
5. काबूंडाजिम 0.5 प्रतिशत या बेनोमिल 0.5 प्रतिशत घोल का छिड़काव करें|
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चाँदनी (एस्कोकाइटा ब्लाइट)
चना में एस्कोकाइटा पत्ती धब्बा रोग एस्कोकाइटा रेबि नामक फफूंद द्वारा फैलता है| उच्च आर्द्रता और कम तापमान की स्थिति में यह रोग फसल को क्षति पहुँचाता है| पौधे के निचले हिस्से पर गेरूई रंग के भूरे कत्थई रंग के धब्बे पड़ जाते हैं और संक्रमित पौधा मुरझाकर सूख जाता है| पौधे के धब्बे वाले भाग पर फफूद के फलनकाय (पिकनीडिया) देखे जा सकते हैं| ग्रसित पौधे की पत्तियों, फूलों और फलियों पर हल्के भूरे रंग के धब्बे पड़ जाते हैं|
रोकथाम-
1. फसल चक्र अपनाएँ|
2. चाँदनी से प्रभावित या ग्रसित बीज को नहीं उगाएँ|
3. गर्मियों में गहरी जुताई करें और ग्रसित फसल अवशेष तथा अन्य घास को नष्ट कर दें|
4. कार्बेन्डाजिम 50 प्रतिशत और थिराम 50 प्रतिशत 1:2 के अनुपात में 3.0 ग्राम की दर से या ट्राइकोडर्मा 4.0 ग्राम प्रति किलोग्राम बीज की दर से बीज शोधन करें|
5. चना में केप्टान या मेंकोजेब या क्लोरोवेलोनिल 2 से 3 ग्राम प्रति लीटर पानी का 2 से 3 बार छिड़काव करने से रोग को रोका जा सकता है|
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धूसर फफूंद (बोट्राइटिस ग्रेमोल्ड)
यह रोग चना में वोट्राइटिस साइनेरिया नामक फफूद से होता है| अनुकूल वातावरण होने पर यह रोग आमतौर पर पौधों में फूल आने और फसल के पूर्णरूप से विकसित होने पर फैलता है| वायुमण्डल और खेत में अधिक आर्द्रता होने पर पौधों पर भूरे या काले भूरे रंग के धब्बे पड़ जाते हैं| फूल झड़ जाते हैं और संक्रमित पौधों पर फलियाँ नही बनती हैं| शाखाओं एवं तनों पर जहाँ फफूद के संक्रमण से भूरे या काले धब्बे पड़ जाते हैं, उस स्थान पर पौधा गल या सड़ जाता है|
तन्तुओं के सड़ने के कारण टहनियाँ टूटकर गिर जाती हैं और संक्रमित फलियों पर नीले धब्बे पड़ जाते हैं| फलियों में दाने नही बनते हैं, और बनते भी है तो सिकुड़े हुए होते हैं| संक्रमित दानों पर भूरे व सफेद रंग के कवक तन्तु दिखाई देते हैं|
रोकथाम-
1. चना की बुवाई देर से करने पर रोग का प्रकोप कम होता है|
2. चना की रोग प्रतिरोधी प्रजातियों का चयन करें|
3. इस रोग से प्रभावित क्षेत्रों में कतार से कतार की दूरी बढ़ाकर 45 सेंटीमीटर पर बुवाई करें, ताकि फसल को अधिक धूप और प्रकाश मिले तथा आर्द्रता में कमी आए|
4. बीमारी के लक्षण दिखाई देते ही तुरन्त केप्टान या काबेंडाजिम या मेंकोजेब या क्लोरोथेलोनिल का 2 से 3 बार एक सप्ताह के अन्तराल पर छिड़काव करें ताकि प्रकोप से बचा जा सके|
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हरदा रोग
चना का यह रोग यूरोमाईसीज साइसरीज (एरोटीनी) नामक फफूद से होता है| पौधों में वानस्पतिक वृद्धि ज्यादा होने, मिट्टी में नमी बहुत बढ़ जाने और वायुमंडलीय तापमान बहुत गिर जाने पर इस रोग का आक्रमण होता है| पौधों के पत्तियों, तना, टहनियों और फलियों पर गोलाकार प्यालिनुमा सफेद भरे रंग का फफोले बनते हैं| बाद में तना पर के फफोले काले हो जाते हैं एवं पौधे सूख जाते हैं|
चना के पौधों पर इस रोग का आक्रमण जितना अगेता होता है, क्षति उतना ही अधिक होती है| इस रोग से 80 प्रतिशत तक क्षति पाई गई है| फसल में यह रोग हर वर्ष नहीं आता है| पौधे में रोग के आक्रमण के बारे में तब जान पाते हैं, जब फफूद प्रजननता अवस्था में रहता है| इसलिए फफूद के लिए उपयुक्त वातावरण बनते ही सुरक्षात्मक ऊपचार करना चाहिए|
रोकथाम-
1. चना की रोगरोधी किस्मों का चुनाव करना चाहिए|
2. चना बीज का फफूदनाशी से बीजोपचार करना चाहिए|
3. फफूद के उपयुक्त वातावरण बनते ही मेनकोजेब 75 प्रतिशत घुलन चूर्ण 2 किलोग्राम का सज्ञात्मक छिड़काव करना चाहिए|
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स्टेमफिलियम ब्लाईट
चना में यह रोग स्टेमफिलियम सरसिनीफार्म नामक फफूद से होता है, पत्तियों पर बहुत छोटे भूरे काले रंग के धब्बे बनते हैं| पहले पौधे के निचले भाग की पत्तियाँ प्रभावित होकर झड़ती हैं और रोग ऊपरी भाग पर बढ़ते जाता है| खेत में यह रोग एक स्थान से शुरू होकर धीरे-धीरे चारों ओर फैलता है| तीव्र आक्रमण की अवस्था में पत्तियाँ झड़ जाती हैं एवं फलन नहीं हो पाता है|
रोकथाम-
1. उपयुक्त वातावरण बनने पर चौकन्ना रहें और शुरू में ही प्रभावित पौधों को फसल से निकाल कर जला दें|
2. चना का अनुशंसित फफूदनाशी से बीजोपचार करना चाहिए|
3. उपयुक्त वातावरण बनते ही मैनकोजेब 75 प्रतिशत 2 किलोग्राम या कॉपर ऑक्सीक्लोराईड 50 प्रतिशत 3 किलोग्राम प्रति हेक्टेयर की दर से सुरक्षात्मक छिड़काव करना चाहिए|
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पाला से बचाव
वातावरण का तापमान बहुत कम हो जाने और रात में पछुआ हवा चलने पर पाला गिरने की संभावना बढ़ जाती है। तापमान बढ़ने पर कम प्रभावित चना के पौधे स्वस्थ रह जाते हैं, लेकिन अधिकतर मर जाते हैं|
1. जिस खेत में सूत्रकृमि की संख्या ज्यादा हो उसमें कार्बोफ्यूरान 3 जी 25 से 30 किलोग्राम या फोरेट 10 जी 10 किलोग्राम प्रति हेक्टेयर की दर से अंतिम जुताई के समय मिट्टी में मिला देना लाभप्रद होगा|
2. चना का कार्बोसल्फान की उचित मात्रा से बीज उपचार करना लाभप्रद होगा|
मोजेक और बौना रोग
मोजेक रोग में ऊपर की फुनगियाँ मुड़कर सूख जाती हैं एवं फलन कम होती हैं, जबकि बौना विषाणु रोग में पौधे छोटे, पीले, नारंगी या भूरा दिखाई पड़ते हैं| यह रोग लाही द्वारा स्वस्थ्य पौधे तक पहुँचाया जाता है| इसके अलावे मिट्टी में लोहे की कमी और लवण की अधिकता भी पौधे में रोग के लक्षण के रूप में प्रकट होते हैं, जो समान रूप से नजर नहीं आते हैं|
रोकथाम-
1. विषाणु रोग के फैलाव को रोकने के लिए लाही कीट का नियंत्रण हेतु एलो-स्टीकी-ट्रैप (पीला फंदा) एक हेक्टर में 20 फंदा लगावें|
2. यदि इस कीट का पौधों पर एक समूह बन गया हो तो किसी अन्र्तव्यापि कीटनाशी का छिड़काव करना चाहिए|
3. लोहे के कमी वाले क्षेत्र में 10 से 12 किलोग्राम फेरम सल्फेट प्रति हेक्टेयर की दर से अंतिम जुताई के समय मिट्टी में मिला देना चाहिए|
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