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मई माह के कृषि कार्य: नियमित देखभाल और बेहतर पैदावार

May 8, 2024 by Bhupender Choudhary Leave a Comment

मई माह के कृषि कार्य: नियमित देखभाल और बेहतर पैदावार

मई माह, जिसे आप वैशाख – ज्येष्ठ भी कहते हैं, में ग्रीष्म ऋतु का आगमन होता है। रबी ( चना, मसूर, मटर, गेहूं एवं जौ) फसलों की कटाई – मड़ाई, गहाई इस समय तक पूर्ण हो जाती है और इन फसलों का सुरक्षित भंडारण एक चुनौती होती है। अनाज के साथ-साथ भूसा भी एक बहुमूल्य उत्पाद है। अतः उसका भंडारण भी सावधानीपूर्वक करना चाहिए।

रबी फसलों के उत्पाद को वैज्ञानिक तरीके से सुरक्षित रखना ज्यादा महत्वपूर्ण है। मई में सिंचित क्षेत्रों में जायद की फसलें उगाई जाती हैं। समय पर बोई गयी फसलें जैसे मूंग, उड़द, लोबिया, मूंगफली, सूरजमुखी, गन्ना, कपास, धान की नर्सरी, चारे की फसलें, हरी खाद वाली फसलें, औषधीय और मेंथा वाली फसलें, सब्जी वाली फसलें, बागवानी फसलों एवं पुष्प व सुगंध आदि पौध अवस्था में हैं।

अधिक फसल उत्पादन के लिए इन फसलों को जैविक और अजैविक तनावों, विशेष रूप से नमी की कमी, से बचाना बेहद जरूरी होता है। मृदा में नमी के उपयुक्त उपाय के साथ-साथ सिंचाई जल की उपयोग दक्षता पर भी विशेष ध्यान देने की आवश्यकता होती है। मई माह में किये जाने वाले प्रमुख कृषि कार्यों का विवरण निम्न प्रकार से है।

चना, मसूर, मटर, गेहूं और जौ

1. किसान भाई भंडारण के लिए उपयुक्त उपाय करते हैं, किन्तु जहां भी इस कार्य में कोताही बरतते हैं, तो फसल उत्पादन में बहुत नुकसान होता है। इस प्रकार वर्षभर की मेहनत पर पानी फिर जाता है। कई बार तो यह मनुष्य और पशुओं के उपयोग के योग्य भी नहीं होता।

2. दलहनी फसलों (चना, मसूर और मटर ) में घुन ( राइजोपरथा डोमिनिका) या ब्रुचिड (कैलोसोब्रूकस मैकूलेटस ) कीट का प्रकोप खेत में फलियां पकते ही शुरु हो जाता है। कटाई उपरांत दानों का उचित उपचार नहीं होने पर भंडारण में इनका प्रकोप निरंतर बढ़ता ही जाता है। भंडारण से पूर्व दानों को फैलाकर सुखाना चाहिये। चना, मसूर और मटर के भंडारण के लिए दानों में 10-12 प्रतिशत या इससे भी कम नमी हो। चना, मटर और मसूर के दानों के भंडारण के दौरान कीटों से सुरक्षा के लिए एल्यूमिनियम फॉस्फाइड 1-3 गोली/ टन की दर से प्रयोग करें या एथिलीन डाइब्रोमाइड (ईडीबी) की 30 मिली मात्रा/टन बीज की दर से धूमीकरण करने से घुन कीट के प्रकोप को नियंत्रण किया जा सकता है।

3. चना, मटर और मसूर के दानों पर सरसों, मूंगफली, सोयाबीन, तिल एवं नारियल का तेल 6-7 मिली तथा 2 ग्राम हल्दी पाउडर प्रति किलोग्राम की दर से उपचारित कर स्टील के बर्तन में भंडारण कर सकते हैं। वैज्ञानिक विधि द्वारा निर्मित पात्र पूसा बिन, पंतनगर कुठला व हापुड़ बिन आदि का प्रयोग भी करना चाहिए।

4. अनाज व बीज को भंडारण से पहले ठीक प्रकार सुखा लेना चाहिए। भंडारण के समय नुकसान पहुंचाने वाले मुख्य कीट जैसे- अनाज का पतंगा (साइटोट्रोगा सिरियलेला), दाल का ढोरा (कैलोसोब्रूकस मैकूलेटस), खपरा बीटल (ट्रोगोडरमा ग्रेरनेरियम), सूंडवाली सुरसुरी (साइटोलिस ओरायजी), घुन या छोटा छिद्रक (राइजोपरथा डोमिनिका), चावल का पतंगा (कोरसायरा सिफेलोनिकी) व आटे का कीट (ट्राइबोलियम कैस्टेनियम ) आदि का प्रकोप होता है। नमी की अधिकता से इन कीटों का प्रकोप बढ़ जाता है।

5. भंडारण के लिए तिलहनी और दलहनी फसलों में 6-8 प्रतिशत नमी तथा धान्य वाली फसलों में नमी की मात्रा 8 – 10 प्रतिशत होने पर ही भंडारण करना चाहिए। शोध के द्वारा ऐसा पाया गया है कि भंडारण के समय धान्य फसलों के बीज में 14-15 प्रतिशत से अधिक नमी होने पर फफूंदीजनित रोग, 10-12 प्रतिशत से अधिक नमी होने पर कीड़े-मकोड़ों का प्रकोप 14 – 15 प्रतिशत से अधिक होने पर और 15 प्रतिशत से अधिक नमी होने पर अच्छी तरह अंकुरण नहीं हो पाता है।

6. सबसे पहले भंडारगृह वाली जगह पर अच्छी प्रकार से साफ-सफाई करनी चाहिए। पुराने अवशेषों और मकड़ी के जालों को निकालकर साफ कर देना चाहिए। दीवारों या फर्श पर पड़ी दरारों को सीमेंट से बंद कर देना चाहिए। कीटों से बचाव के लिए मैलाथियान 50 ईसी मात्रा को 100 लीटर पानी में घोलकर भंडारण कमरे में अच्छी तरह से छिड़काव करें। इस कमरे को कम से कम एक सप्ताह तक बंद रखने पर इसमें छिपे हुए कीड़े-मकोड़े आदि मर जाते हैं। यदि कीटों का छिड़काव से नियंत्रण न किया जा सके और दो कीट प्रति किग्रा बीज या अनाज में उपस्थित हों, तो धुआं देने वाले विषैले रसायन से कीट मर जाते हैं।

7. गोदाम में बीज भंडारण के लिए हमेशा एक लकड़ी का प्लेटफार्म बनायें, जो लगभग एक फीट फर्श से ऊंचा हो। इसके साथ ही दीवारों से भी लगभग एक फीट की दूरी पर हो, बोरों को गोदाम की दीवारों से सटाकर कभी भी नहीं रखना चाहिए। भंडारण प्राय: जूट के बोरों में करना चाहिए। नए बोरों का प्रयोग करें, तो ज्यादा अच्छा है।

पुराने बोरे होने पर 3-4 दिनों तक तेज धूप में सुखाने चाहिए। पुराने बोरों को उपयोग में लेने के लिए उन्हें या तो गरम पानी से धो लें या फिर 0.1 प्रतिशत मैलाथियान घोल में 15-20 मिनट तक डुबोकर रखें, फिर उन्हें अच्छी तरह धूप में सुखाकर उपयोग करना चाहिए। अधिक जाने- गेहूं का सुरक्षित भंडारण कैसे करें

ग्रीष्मकालीन मूंग, उड़द और लोबिया

1. मई माह में मूंग, उड़द और लोबिया की फसल अपनी बढ़वार की अवस्था में होगी। अधिकतर जगह मार्च के आखिर या अप्रैल के प्रथम सप्ताह में बुआई हो चुकी होगी। अतः सिंचाई 10-15 दिनों के अन्तराल पर आवश्यकतानुसार व हल्की करें।

2. बुआई के प्रारंभिक 4-5 सप्ताह तक खरपतवार की समस्या अधिक रहती है। पहली सिंचाई के बाद निराई करने से खरपतवार नष्ट होने के साथ-साथ भूमि में वायु का संचार भी होता है, जो मूल ग्रन्थियों में क्रियाशील जीवाणुओं द्वारा वायुमंडलीय नाइट्रोजन एकत्रित करने में सहायक होता है। अत: बुआई के 15-20 दिनों के अन्दर कसोले से निराई-गुड़ाई कर खरपतवारों को नष्ट कर देना चाहिए।

3. झुर्रीदार पत्ती रोग: इस रोग के विशिष्ट लक्षण पत्तियों की सामान्य से अधिक वृद्धि तथा बाद में इनमें सिलवटें या मरोड़ होता है। ये पत्तियां छूने पर सामान्य पत्ती से अधिक मोटी तथा खुरदरी प्रतीत होती हैं। इसके नियंत्रण के लिये 1 ) रोगरोधी प्रजातियां ही उगाएं। 2) रोगी पौधों को उखाड़कर जला देना चाहिए। 3 ) डाइमिथोएट 30 ईसी का छिड़काव करने से लाभ होता है।

4. एंथ्रेक्नोज रोग: इस रोग से ग्रसित पौधों की पत्तियों तथा फलियों पर भूरे गोल धंसे हुए धब्बे दिखाई देते हैं। इन धब्बों का केन्द्र गहरे रंग का और बाहरी सतह चमकीली लाल रंग की होती है। संक्रमण बढ़ने पर पौधे के रोग ग्रसित भाग जल्दी सूख जाते हैं। इस रोग के नियंत्रण के लिये 1) बुआई से पहले बीज का थीरम कवकनाशी या कैप्टॉन 2-3 ग्राम प्रति किग्रा बीज की दर से उपचार करना चाहिए। 2 ) इंडोफिल जेड – 78 या थीरम कवकनाशी 2 ग्राम प्रति लीटर पानी की दर से घोल बनाकर रोग के लक्षण दिखाई देने पर छिड़काव करें तथा आवश्यकतानुसार 1 से 2 छिड़काव 15 दिनों के अन्तराल पर करने चाहिए।

5. सर्कोस्पोरा पर्ण बुदंगी रोग: पत्तियों पर सलेटी से भूरे कोणीय धब्बे पड़ जाते हैं। इन धब्बों के चारों तरफ लाल रंग की किनारी बन जाती है। ये इस रोग के विशिष्ट लक्षण हैं। गम्भीर अवस्था में फलियां बनते समय संक्रमित पत्तियां सड़ जाती हैं। इस रोग के नियंत्रण के लिये बुआई से पहले बीज का कैप्टॉन या थीरम कवकनाशी से 2-3 ग्राम प्रति किग्रा बीज की दर से उपचार करना चाहिए | कार्बेन्डाजिम (0.05 प्रतिशत) या मैन्कोजेब 0.2 प्रतिशत का छिड़काव करना चाहिए।

6. पीली चितेरी रोग: उड़द और मूंग में प्रायः पीली चितेरी रोग का प्रकोप होता है। सर्वप्रथम कोमल पत्तियों पर पीले तथा हरे धब्बों का दृष्टिगोचर होना इस रोग का प्रमुख लक्षण है। 1 ) इस रोग के नियंत्रण के लिये मूंग रोगरोधी प्रजातियां ही उगायें। 2 ) बुआई के समय कीटनाशी डाइसल्फोआन या फोरेट 1 किग्रा सक्रिय अवयव प्रति हैक्टर की दर से भूमि में प्रयोग करना चाहिए। इससे अन्य कीटों से भी फसल की सुरक्षा हो जाती है।

7. चूर्णी कवक: इस रोग से ग्रसित पौधों की पत्तियों तथा दूसरे भागों पर सफेद चूर्ण धब्बे पड़ जाते हैं, जो बाद में मटमैले रंग के हो जाते हैं। इस रोग के नियंत्रण के लिये मूंग की रोगरोधी प्रजातियां उगाना लाभदायक रहता है। घुलनशील गंधक (0.3 प्रतिशत) या कैराथेन (0.1 प्रतिशत ) या कार्बेन्डाजिम (0.05 प्रतिशत) का 7- 10 दिनों के अन्तराल पर 2 से 3 छिड़काव करें।

8. उड़द का पीला चित्तवर्ण रोग: इसमें पत्तियों पर पीले सुनहरे चकत्ते पड़ जाते हैं। रोग की उग्र अवस्था में सम्पूर्ण पत्ती पीली पड़ जाती है और यह रोग सफेद मक्खी के द्वारा फैलता है। इसके नियंत्रण के लिये डाइमिथोएट (30 ईसी) एक लीटर प्रति हैक्टर का छिड़काव करना चाहिए या मिथाइल- ओडिमेटान (25 ईसी) 1.0 लीटर प्रति हैक्टर का छिड़काव करना चाहिए।

9. उड़द का पत्र दाग रोग: इस रोग में पत्तियों पर गोलाई लिए भूरे रंग के कोणीय धब्बे बनते हैं। इसके बीच का भाग राख या हल्का भूरा तथा किनारा लाल बैंगनी रंग का होता है। इसके नियंत्रण के लिये 1 ) 3.0 किग्रा कॉपर ऑक्सीक्लोराइड प्रति हैक्टर 10 दिनों के अन्तराल पर 2 से 3 छिड़काव या कार्बेंडाजिम 500 ग्राम का एक छिड़काव पर्याप्त होता है। 2 ) गर्मी में गहरी जुताई करें व रोगरोधी प्रजातियों को उगायें | 3 ) बीज शोधन एवं बीजोपचार किसान भाई अवश्य करें।

10 . प्रमुख कीट एवं उनकी रोकथाम: उड़द- मूंग पर पाये जाने वाले हानिकारक कीटों की समस्या विभिन्न क्षेत्रों में भिन्न-भिन्न होती हैं। फसल की अवस्था, तापमान, नमी, सूर्य के प्रकाश तथा वर्षा पर निर्भर करती है। फसल में लगने वाले कीटों में तना मक्खी, सफेद मक्खी, हरा फुदका (लीफ हॉपर या जैसिड), पत्तीछेदक भृंग (गेलूरूसिड बीटिल ) माहू, पर्ण जीवक (थ्रिप्स), चना फलीभेदक एवं मटर फलीभेदक आदि प्रमुख हैं।

11. तना मक्खी के नियंत्रण हेतु इंडसिस्टोन या फोरेट से बीजोपचार करके 2-4 सप्ताह तक फसल को सुरक्षित रखा जा सकता है। बुआई के समय एल्डीकार्ब 10जी और फोरेट 10जी 1.6 किग्रा सक्रिय तत्व प्रति हैक्टर का प्रयोग करना अधिक लाभदायक होता है। मोनोक्रोटोफॉस 40 ईसी 624 मिली प्रति हैक्टर या ऑक्सीडिमेटॉन मिथाइल 25 ईसी 750 मिली प्रति हैक्टर की दर से छिड़काव 15 दिनों के अन्तराल पर करना चाहिए।

12. सफेद मक्खी के नियंत्रण के लिये ऑक्सीडिमेटान मिथाइल 0.1 प्रतिशत या डाइमेथोएट 0.3 प्रतिशत प्रति हैक्टर 650-700 लीटर पानी में मिलाकर 3-4 छिड़काव करना चाहिए। इमिडाक्लोरोपिड 0.5 मिली लीटर पानी (500 लीटर प्रति हैक्टर) की दर से छिड़काव बुआई के 10-15 दिनों बाद अवश्य करें।

13. जैसिड के नियंत्रण के लिए मोनोक्रोटोफॉस, फिनिट्रोथियान, क्लोरफेनविन फॉस, मैलाथियान, डाइमेथोएट का क्रमश: 0.075 प्रतिशत, 0.05 प्रतिशत व 0.03 प्रतिशत या इमिडाक्लोरोपिड 0.5 मिली प्रति लीटर पानी (500 लीटर प्रति हैक्टर) की दर से छिड़काव बुआई के 10-15 दिनों बाद लाभदायक पाया गया है। इसके साथ ही बुआई के समय में भी परिवर्तन करके इसका नियंत्रण किया जा सकता है।

14. माहू के नियंत्रण हेतु फेनवलेरेट, साइपरमेथ्रिन एवं डेकामिथ्रिन आदि काफी प्रभावी पाया गया है। बुआई के समय डाइसल्फोटोन ग्रेन्यूल 1 किग्रा सक्रिय तत्व प्रति हैक्टर के प्रयोग करने से लगभग पांच सप्ताह तक माहूं का नियंत्रण आसानी से हो जाता है।

15. पत्तीछेदक भृंग के प्रभावी नियंत्रण के लिये डाइसल्फोटोन 5 जी 1.5 किग्रा प्रति हैक्टर की दर से बुआई के समय प्रयोग करने से लाभ होता है।

16. पर्ण जीवक की रोकथाम करने के लिये कीटनाशी जैसे कार्बोफ्यूरॉन 3जी या फोरेट 10जी 1 किग्रा सक्रिय तत्व प्रति हैक्टर की दर से मृदा में बुआई के समय डालना अधिक उपयोगी होता है। इसी तरह साइपरमेथ्रिन 0.1 प्रतिशत या फ्लूवैलिनेट 0.075 प्रतिशत या फेनवलरेट 0.1 प्रतिशत से भी खरीफ की फसल में पर्ण जीवक से छुटकारा पाया जा सकता है। 0.03 प्रतिशत डाइमेथोएट अथवा 0.03 प्रतिशत मिथाइल ओडिमेटान का प्रयोग भी अधिक प्रभावी पाया गया है। इसके साथ ही किसान भाई गर्मी में खेत की गहरी जुताई अवश्य करें।

17. गर्मी में बोई गई लोबिया की फसल में मई माह में 12-15 दिनों के अंतराल पर सिंचाई करते रहें। लोबिया की नर्म व कच्ची फलियों की तुड़ाई नियमित रूप से 4-5 दिनों के अंतराल में करें। झाड़ीदार प्रजातियों में 3-4 तुड़ाई तथा बेलदार प्रजातियों में 8-10 तुड़ाइयां की जा सकती हैं। और अधिक पढ़ें-

मूंग की फसल: मूंग की खेती

उड़द की फसल: उड़द की खेती

लोबिया की फसल: लोबिया की खेती

मूंगफली और सूरजमुखी

1. सिंचित क्षेत्रों में जायद मूंगफली की बुआई मई के पहले सप्ताह तक कर सकते हैं। इसके लिए मूंगफली-गेहूं फसल चक्र अपनाया जा सकता है। एक ही भूमि पर प्रत्येक वर्ष मूंगफली न उगायें। इससे भूमि से कई रोग पैदा हो जाते हैं। जायद मूंगफली की उन्नत किस्में एम 522, एम 335, एचबी 84 सिंचित क्षेत्रों में तथा एम 37 बारानी क्षेत्रों में जहां वर्षा अच्छी हो, वहां लगाई जा सकती है। और अधिक पढ़ें- मूंगफली की खेती

2. मई माह में सूरजमुखी की फसल में आवश्यकतानुसार सिंचाई एवं निराई-गुड़ाई करें तथा पौधों पर मिट्टी चढ़ायें। जायद में बोयी गई सूरजमुखी की फसल में तीन सिंचाइयों की आवश्यकता पड़ती है। पहली सिंचाई बुआई के 30-35 दिनों बाद करें। इसी अवस्था में नाइट्रोजन की 1/3 मात्रा का उपयोग करें, द्वितीय सिंचाई 20-25 दिनों बाद फूल आने की अवस्था में और अंतिम सिंचाई बीज बनने की अवस्था में करें। और अधिक पढ़ें- सूरजमुखी की खेती

कपास की फसल 

1. कपास एक महत्वपूर्ण नकदी फसल है। व्यावसायिक जगत में यह ‘श्वेत स्वर्ण’ के नाम से जानी जाती है। कपास के उत्तम जमाव हेतु न्यूनतम 16 डिग्री सेल्सियस तापमान फसल बढ़वार के समय 21 – 27 डिग्री सेल्सियस तापमान व उपयुक्त फलन हेतु दिन में 27 से 32 डिग्री सेल्सियस तापमान तथा रात्रि में ठंडक का होना आवश्यक है। गूलरों के फटने हेतु चमकीली धूप व पालारहित ऋतु आवश्यक है। कपास के लिए कम से कम 50 सेंमी वर्षा का होना आवश्यक है।

2. कपास के लिए उपयुक्त मृदा में अच्छी जलधारण एवं जल निकास क्षमता होनी चाहिए। जहां सिंचाई की सुविधाएं उपलब्ध हों वहां बलुई और बलुई दोमट मृदा में इसकी खेती की जा सकती है। इसके लिए उपयुक्त पी-एच मान 5.5-6.0 है पर इसकी खेती 8.5 पी-एच मान तक वाली मृदा में भी की जा सकती है। और अधिक पढ़ें- कपास की खेती

गन्ना की फसल 

मई में ग्रीष्मकालीन गन्ने की बुआई की जाती है। इसकी पैदावार शरद व बसंतकालीन गन्ने से कम होती है। विभिन्न गन्ने की फसलों की उपयुक्तता इससे पहले ली जाने वाली फसल पर निर्भर करती है। यदि ग्रीष्मकालीन गन्ने की पैदावार बढ़ानी है, तो उपयुक्त किस्म तथा संतुलित पोषण अनिवार्य है। बुआई से पूर्व गन्ने के टुकड़ों को 24 घंटे पानी में भिगोकर रखने से अंकुरण अच्छा होता है।

मई माह में बुआई के लिए पंक्ति से पंक्ति की दूरी 60 सेंमी कर लें। कूंड़ के अन्दर पौधों की संख्या भी बढ़ा दें। गन्ने में बुआई के लगभग 3 माह बाद 60-75 किग्रा नाइट्रोजन (130 – 163 किग्रा यूरिया) प्रति हैक्टर की टॉप ड्रेसिंग करें। यदि गन्ना काटने के बाद गन्ने की बुआई करनी हो, तो पलेवा करके गन्ना बोयें। और अधिक पढ़ें- गन्ना की खेती

धान की नर्सरी

मई माह धान की नर्सरी के लिए उपयुक समय है। बीज का चयन सावधानीपूर्वक करें। इसके लिए आधारित व प्रमाणित बीजों का ही प्रयोग करें, जिनमें पूर्ण जमाव, किस्म की शुद्धता एवं स्वस्थ होने की प्रमाणिकता होती है। धान की पौध तैयार करने के लिए 8 मीटर लम्बी और 1.5 मीटर चौड़ी क्यारियां बना लेते हैं। जब तक नव पौध हरी न हो जाए, पक्षियों से होने वाले नुकसान से बचाने के लिए विशेष सावधानी बरती जानी चाहिए तथा शुरू के 2-3 दिन अंकुरित बीजों को पुआल से ढके रहने दें।

इसके बाद पानी की पतली सतह के साथ संतृप्त से गारे वाली स्थिति बनाए रखने के लिए नर्सरी क्यारियों के ऊपर अंकुरित बीजों को समान रूप से छिड़क दें। और अधिक पढ़ें- धान की खेती

चारे वाली फसलें

1. मई में बरसीम, जई व लोबिया की बीज वाली फसल की कटाई कम करें और 10-12 दिनों के अन्तराल पर सिंचाई करते रहें।

2. मई में हरे चारे के लिए बाजरा, ज्वार व मक्के फसल की बुआई कर सकते हैं। इसकी बुआई मार्च के अंत या अप्रैल तक कर दी जाती है। सिंचाई का विशेष ध्यान रखें। प्रत्येक कटाई के बाद सिंचाई अवश्य करें और नाइट्रोजन की मात्रा को भी ठीक प्रकार से प्रयोग करें। और अधिक पढ़ें-

बाजरा की फसल: बाजरे की खेती

ज्वार की फसल: ज्वार की खेती

मक्के की फसल: मक्का की खेती

हरी खाद वाली फसलें

मई में हरी खाद के लिए दलहनी फसलों में ढैचा, सनई, मूंग, उड़द, अरहर, चना, मसूर, मटर, लोबिया, मोठ, खेसारी तथा कुल्थी मुख्य हैं। उत्तर में जायद में हरी खाद के रूप में अधिकतर ढैचा, सनई, उड़द और मूंग का प्रयोग ही प्राय: प्रचलित है। हरी खाद के लिए उगाई जाने वाली फसलों का चयन भूमि जलवायु तथा उद्देश्य को ध्यान में रखते हुए करना चाहिए।

हरी खाद के लिए ऐसी फसल होनी चाहिए, जिसका तना, शाखाएं और पत्तियां कोमल एवं अधिक हों, ताकि मिट्टी में शीघ्र अपघटन होकर अधिक से अधिक जीवांश तथा नाइट्रोजन मिल सके और फसल शीघ्र वृद्धि करने वाली हो। और अधिक पढ़ें- हरी खाद क्या है?

औषधीय और मेंथा की फसलें

1. मई में मेंथा की फसल में 40-50 किग्रा नाइट्रोजन की तीसरी व अंतिम टॉप ड्रेसिंग अवश्य करें। मेंथा फसल की कटाई 100-120 दिनों पर, जब पौधों में कलियां बनने लगें, तब करें और दूसरी कटाई, पहली कटाई के 70-80 दिनों पर करें। पौधों की कटाई मृदा की सतह से 4-5 सेंमी ऊंचाई पर करनी चाहिए। कटाई के बाद पौधों को 2-3 घन्टे तक खुली धूप में छोड़ दें। कटी फसल को छाया में हल्का सुखाकर जल्दी आसवन विधि द्वारा यंत्र से तेल निकाल लें। और अधिक पढ़ें- पुदीना (मेंथा) की खेती

2. सर्पगंधा की नर्सरी भी मई में डाली जा सकती है। प्रति हैक्टर खेत की रोपाई के लिए 6-7 किग्रा बीज की आवश्यकता होती है। और अधिक पढ़ें- सर्पगंधा की उन्नत खेती

3. तुलसी और सफेद मूसली की बुआई मई माह में कर सकते हैं, जो एक फायदेमंद औषधीय फसल है। मई में रोपाई दोपहर के बाद ही करें और रोपाई के बाद तुरंत खेत में सिंचाई कर देनी चाहिए। हल्की वर्षा वाले दिन तुलसी एवं सफेद मूसली की रोपाई के लिए बहुत उपयुक्त हैं। और अधिक पढ़ें-

तुलसी की फसल: तुलसी की खेती

सफेद मूसली की फसल: सफेद मूसली की खेती

मृदा परीक्षण

1. मई माह मिट्टी परीक्षण करवाने का यह उपयुक्त समय है। मृदा की जांच या मृदा परीक्षण मृदा में उपलब्ध पोषक तत्वों की मात्रा, पी-एच मान और मृदा में उपलब्ध सूक्ष्म जीवों की संख्या निर्धारित करने के लिए मृदा के नमूने की एक रासायनिक जांच या परीक्षण है। मृदा परीक्षण करवाकर हम अपनी मृदा की वर्तमान स्थिति को जानकर उसकी स्थिति सुधारने के लिए उचित कदम ले सकते हैं। सही अनुपात में आवश्यक पोषक तत्वों का चयन भी कर सकते हैं। मृदा के ‘अनुसार सही फसलचक्र का चयन कर ज्यादा लाभ प्राप्त कर सकते हैं।

2. अपने प्रत्येक खेत से लगभग 15 स्थानों से 15 सेंमी गहराई तक खुरपी की सहायता से मृदा नमूने इकट्ठे करें। मृदा का नमूना खेत के किनारे किसी खाद वाले स्थान, छायादार स्थान व सिंचाई की नाली के पास से न लें। एक खेत से इकट्ठे किये गये नमूनों की मृदा आपस में अच्छी तरह मिलाकर अन्त में उसमें से 500 ग्राम मृदा एक कपड़े की थैली में भरकर पूरे विवरण के साथ मृदा परीक्षण प्रयोगशाला में भेजें। और अधिक पढ़ें- मिट्टी परीक्षण क्यों और कैसे करें

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