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Home » Blog » चने की खेती: किस्में, बुवाई, पोषक तत्व, सिंचाई, देखभाल, पैदावार

चने की खेती: किस्में, बुवाई, पोषक तत्व, सिंचाई, देखभाल, पैदावार

July 7, 2018 by Bhupender Choudhary Leave a Comment

चने की खेती

चना की खेती (Gram farming) हमारे देश में दलहनी फसलों में अपना प्रमुख स्थान रखती है| भारत विश्व में सबसे बड़ा चने का उत्पादक (कुल उत्पादन का 75 प्रतिशत) देश है| क्षेत्रफल और उत्पादन दोनों ही दृष्टि में दलहनी फसलों में चने का मुख्य स्थान है| समस्त उत्तर से मध्य व दक्षिण भारतीय राज्यों में चना रबी फसल के रूप में उगाया जाता है|

चना उत्पादन की नई उन्नत तकनीक व उन्नतशील किस्मों का उपयोग कर किसान चने का उत्पादन बढ़ा सकते हैं एवं उच्चतम एवं वास्तविक उत्पादकता के अन्तर को कम कर सकते हैं| इस लेख में चने की उन्नत खेती कैसे करें की विस्तृत जानकारी का उल्लेख है|

चने की फसल के लिए उपयुक्त जलवायु

चने की खेती साधारणतः बारानी दशाओं में अधिक की जाती है, असिंचित दशा में चने की खेती का लगभग 78 प्रतिशत क्षेत्र देश के विभिन्न भागों में फैला हुआ है| 22 प्रतिशत क्षेत्र में इसकी खेती सिंचित दशा में भी की जाती है, शरद कालीन फसल होने के कारण चना की खेती कम वर्षा वाले तथा हलकी ठंडक वाले क्षेत्रों में की जाती है|

फूल आने की दशा में यदि वर्षा हो जाती है, तो फूल झड़ने के कारण फसल को बहुत हानि होती है, फसल को क्षति पहुँचने का अन्य कारण ज्यादा वर्षा होने से पौधों में अत्यधिक वानस्पतिक वृद्धि भी है, अधिक वानस्पतिक वृद्धि होने पर पौधे गिर जाते है, जिससे फूल व फलियाँ सड़कर खराब हो जाती है|

चने के अंकुरण के लिए कुछ उच्च तापक्रम की आवश्यकता होती है, परन्तु पौधों की उचित वृद्धि के लिए साधारत्या ठन्डे मौसम की आवश्यकता होती है| ग्रीष्मकाल के प्रारम्भ में यदि अचानक उच्च तापमान बढ़ जाता है, तब भी फसल को नुक्सान होता है क्योंकि पौधों को पकने के लिए क्रमिक रूप से बढ़ते हुए उच्च तापमान की आवश्यकता होती है|

साधारण रूप से चना को बोवाई से कटाई के दौरान 27 से 35 सेंटीग्रेड तापमान की आवश्यकता होती है| यदि मानसून की वर्षा प्रभावी रूप से सितम्बर के अंत में या अक्टूम्बर के प्रथम सप्ताह में हो जाती है, तब बारानी क्षेत्रों में चना की भरपूर फसल मिलती है|

यह भी पढ़ें- चना उत्पादन कम होने के कारण, जानिए इसके प्रमुख महत्वपूर्ण बिंदु

चने की खेती के लिए उपयुक्त भूमि

चने की खेती बलुई भूमि से लेकर दोमट तथा मटियार भूमि में की जा सकती है, चने की खेती के लिए दोमट या भारी दोमट मार एवं मडुआ, पड़आ, कछारी भूमि जहाँ पानी न भरता हो, उपयुक्त मानी जाती है| काबुली चना के लिए अपेक्षाकृत अच्छी भूमि की आवश्यकता होती है, दक्षिण भारत में, मटियार दोमट तथा काली मिट्टी में जिसमे पानी की प्रचुर मात्रा धारण करने की शक्ति होती है, में चना की सफलतापूर्वक खेती की जाती है|

परन्तु आवश्यक यह है की पानी के भराव की समस्या न हो| भूमि में जल निकासी का उचित प्रबंध उतना ही आवश्यक है, जितना की सिंचाई से जल देना| हलकी ढलान वाले खेतोँ में चना की फसल अच्छी होती है| ढेलेदार मिट्टी में देशी चना की भरपूर फसल ली जा सकती है| इसके लिए मृदा का पी एच मान 6 से 7.5 उपयुक्त रहता है|

चने की खेती के लिए खेत की तैयारी

चने की खेती के लिए प्रथम जुताई मिट्टी पलटने वाले हल या डिस्क हैरो से करनी चाहिये| इसके पश्चात् एक क्रास जुताई हैरों से करके पाटा लगाकर भूमि समतल कर देनी चाहिये| फसल को दीमक एवं कटवर्म के प्रकोप से बचाने के लिए अन्तिम जुताई के समय हैप्टाक्लोर (4 प्रतिशत) या क्यूनालफॉस (1.5 प्रतिशत) या मिथाइल पैराथियोन (2 प्रतिशत) या एन्डोसल्फॉन की (1.5 प्रतिशत) चूर्ण की 25 किलोग्राम मात्रा को प्रति हैक्टेयर की दर से मिट्टी में अच्छी प्रकार मिला देनी चाहिये|

यह भी पढ़ें- चने की अधिक पैदावार हेतु आवश्यक बिंदु, जानिए आवश्यक सुझाव

चने की खेती और फसल चक्र

भूमि की उर्वरा शक्ति बनाये रखने एवं फसल से अधिक उत्पादन प्राप्त करने के लिए उचित फसल चक्र की विशेष भूमिका होती है| असिंचित क्षेत्र में पड़त-चना (एक वर्षीय), पड़त-चना-पड़त-सरसों (द्विवर्षीय), तथा पड़त-चना-पड़त-सरसों-पड़त-चना (तीन वर्षीय) फसल चक्र अपनाये जा सकते है|

चने की खेती के लिए किस्में

चने की खेती हेतु देश के विभिन्न राज्यों के लिए अनुमोदित उन्नत और प्रचलित किस्में इस प्रकार है, जैसे-

मध्य प्रदेश- जे जी- 74, जे जी- 315, जे जी- 322 पूसा- 391, विश्वास (फुलेजी- 5), विजय, विशाल, जे जी- 16, जे जी- 130, जे जी जी- 1, जवाहर ग्राम काबुली- 1, बी जी डी- 128 (के), आई पी सी के- 2002-29, आई पी सी के- 2004-29 (के) और पेकेवीं कबूली- 4 आदि प्रमुख है|

राजस्थान- हरियाणा चना- 1, डी सी पी- 92-3, पूसा- 372, पूसा- 329, पूसा- 362, उदय, सम्राट, जी पी एफ- 2, पूसा चमत्कार (बी जी- 1053), आर एस जी- 888 आलोक (के जी डी- 1168), बी जी डी- 28 (के), जी एन जी- 1581, आर एस जी- 963, राजास, आर एस जी- 931, जी एन जी- 143, पी बी जी- 1 और जी एन जी- 663 आदि प्रमुख है|

हरियाणा- डी सी पी- 92-3, हरियाणा चना- 1, हरियाणा काबुली चना- 1, पूसा- 372, पूसा- 362, पी बी जी- 1, उदय, करनाल चना- 1, सम्राट, वरदान, जी पी एफ- 2, चमत्कार, आर एस जी- 888, हरियाणा काबुली चना- 2, बीजीएम- 547, फुलेजी- 9425-9 और जी एन जी- 1581 आदि प्रमुख है|

पंजाब- पूसा- 256, पी बी जी- 5, हरियाणा चना- 1, डी सी पी- 92-3, पूसा- 372, पूसा- 329, पूसा- 362, सम्राट, वरदान, जी पी एफ- 2, पूसा चमत्कार (बी जी- 1053), आर एस जी- 888, बी जी एम- 547, फुलेजी- 9425-9, जी एन जी- 15481, आलोक (केजीडी 1168), पी बी जी- 3, आर एस जी- 963, राजास और आर जी- 931 आदि प्रमुख है|

उत्तर प्रदेश- डी सी पी- 92-3, के डब्लू आर- 108, पूसा- 256, पूसा- 372, वरदान, जे जी- 315, उदय, आलोक (के जी डी- 1168), विश्वास, पूसा- 391, सम्राट, जी पी एफ- 2, विजय, पूसा काबुली- 1003, गुजरात ग्राम- 4 आदि प्रमुख है|

बिहार- पूसा- 372, पूसा- 256, पूसा काबुली- 1003, उदय, के डब्लू आर- 108, गुजरात ग्राम- 4 और आर ए यू- 52 आदि प्रमुख है|

छतीसगढ़- जे जी- 315, जे जी- 16, विजय, वैभव, जवाहर ग्राम काबुली- 1, बी जी- 372, पूसा- 391, बी जी- 072 और आई सी सी वी- 10 आदि प्रमुख है|

गुजरात- पूसा- 372, पूसा- 391, विश्वास, जे जी- 16, विकास, विजय, विशाल धारवाड़ प्रगति, गुजरात ग्राम- 1, गुजरात ग्राम- 2, जवाहर ग्राम काबुली- 1, आई पी सी के- 2009-29 और आई पी सी के- 2004-29 आदि प्रमुख है|

महाराष्ट्र- पूसा- 372, विजय, जे जी- 16, विशाल, पूसा- 391, विश्वास (फुलेजी- 5), धारवाड़ प्रगति, विकास, फुलेजी- 12, जवाहर ग्राम काबुली- 1, विहार, के ए के- 2, बी जी डी- 128(के), आई पी सी के- 2002-29, आई पी सी के- 2004-29 फुलेजी- 0517(के) और पेकेवीं कबूली- 4 आदि प्रमुख है|

झारखंड- पूसा- 372, पूसा- 256, पूसा काबुली- 1003, उदय, के डब्लू आर- 108 और गुजरात ग्राम- 4 आदि प्रमुख है|

उत्तराखंड- पन्त जी- 186, डी सी पी- 92-3, सम्राट, के डब्लू आर- 108, पूसा चमत्कार (बी जी- 1053), बी जी एम- 547 और  फुलेजी- 9425-9 आदि प्रमुख है|

यह भी पढ़ें- जौ की खेती: जाने किस्में, देखभाल और पैदावार

हिमाचल प्रदेश- पी बी जी- 1, डी सी पी- 92-3, सम्राट, बी जी एम- 549 और फुलेजी 9425-9 आदि प्रमुख है|

आंध्र प्रदेश- भारती (आई सी सी वी- 10), जे जी- 11, फुलेजी- 95311(के) और एम एन के- 1 आदि प्रमुख है|

असम- जे जी- 73, उदय (के पी जी- 59), के डब्लू आर- 108 और पूसा 372 आदि प्रमुख है|

जम्मू और कश्मीर- डी सी पी- 92-3, सम्राट, पी बी जी- 1, पूसा चमत्कार (बी जी- 1053), बी जी एम- 547 और फुलेजी 9425-9 आदि प्रमुख है|

कर्नाटक- जे जी- 11, अन्नेगिरी- 1, चाफा, भारती (आई सी सी वी- 10) फुलेजी- 9531, स्वेता (आई सी सी वी- 2) के और एम एन के- 1 आदि प्रमुख है|

मणीपुर- जे जी- 74, पूसा- 372 और बी जी- 253 आदि प्रमुख है|

मेघालय- जे जी- 74, पूसा- 372 और बी जी- 256 आदि प्रमुख है|

ओडिशा- पूसा- 391, जे जी- 11, फुलेजी- 95311 और आई सी सी वी- 10 आदि प्रमुख है|

तमिलनाडू- आई सी सी वी- 10, पूसा- 372 और बी जी- 256 प्रमुख है|

पश्चिम बंगाल- जे जी- 74, गुजरात ग्राम- 4, के डब्लू आर- 108, पूसा- 256, महामाया- 1 और महामाया 2 आदि प्रमुख है| चने की खेती हेतु किस्मों की अधिक एवं विस्तृत जानकारी के लिए यहाँ पढ़ें- चने की उन्नत किस्में

चने की खेती के लिए बुवाई का समय

उत्तर भारत के असिंचित क्षेत्रों में चना की बुवाई अक्टूबर के दूसरे पखवाड़े तथा सिंचित क्षेत्रों में नवम्बर के प्रथम पखवाड़े में करनी चाहिए| धान की फसल के बाद बुवाई करने की स्थिति में बुवाई दिसम्बर के प्रथम सप्ताह तक कर लेनी चाहिए| देश के मध्य भाग में अक्टूबर का प्रथम तथा दक्षिणी राज्यों में सितम्बर के अंतिम सप्ताह से अक्टूबर का प्रथम सप्ताह चना की बुवाई के लिए उपयुक्त है|

यह भी पढ़ें- गेहूं की खेती: किस्में, बुवाई ,देखभाल और पैदावार

चने की खेती के लिए बीज दर

चने के बीज की मात्रा दानों के आकार/भार, बुवाई का समय एवं बुवाई विधि पर निर्भर करती है| बड़े दानों वाले प्रजातियों (काबुली चना) का 80 से 90 किलोग्राम तथा बारानी खेती के लिए छोटे दानों वाली प्रजातियों का 80 किलोग्राम तथा सिंचित क्षेत्र के लिए 60 किलोग्राम बीज की मात्रा प्रति हैक्टेयर पर्याप्त होती है| पछेती बुवाई की स्थिति में 20 से 25 प्रतिशत अधिक बीज का उपयोग करें| फसल से अधिक पैदावार प्राप्त करने के लिए खेत में प्रति इकाई पौधों की उचित संख्या होना बहुत आवश्यक है|

चने की खेती के लिए बीज उपचार

चने की खेती में अनेक प्रकार के कीट एवं बीमारियां हानि पहुँचाते हैं| इनके प्रकोप से फसल को बचाने के लिए बीज को उपचारित करके ही बुवाई करनी चाहिये| बीज को उपचारित करते समय ध्यान रखना चाहिये कि सर्वप्रथम उसे फफूंदनाशी, फिर कीटनाशी तथा अन्त में राजोबियम कल्चर से उपचारित करें|

जड गलन व उखटा रोग की रोकथाम के लिए बीज को कार्बेन्डाजिम या मैन्कोजेब या थाइरम की 1.5 से 2 ग्राम मात्रा द्वारा प्रति किलोग्राम बीज दर से उपचारित करें| दीमक एवं अन्य भूमिगत कीटों की रोकथाम हेत क्लोरोपाइरीफोस 20 ई सी या एन्डोसल्फान 35 ई सी की 8 मिलीलीटर मात्रा प्रति किलोग्राम बीज दर से उपचारित करके बुवाई करनी चाहिये।

अन्त में बीज को राइजोबियम कल्चर के तीन एवं फास्फोरस घुलनशील जीवाणु के तीन पैकेटों द्वारा एक हैक्टेयर क्षेत्र के लिए आवश्यक बीज की मात्रा को उपचारित करके बुवाई करनी चाहिये| बीज को उपचारित करके लिए एक लीटर पानी में 250 ग्राम गुड़ को गर्म करके ठंडा होने पर उसमें राइजोबियम कल्चर व फास्फोरस घुलनशील जीवाणु को अच्छी प्रकार मिलाकर उसमें बीज उपचारित करना चाहिये| उपचारित बीज को छाया में सूखाकर शीघ्र बुवाई कर देनी चाहिये|

यह भी पढ़ें- जई की खेती: जाने किस्में, देखभाल और पैदावार

चने की खेती के लिए बुवाई की विधि

चने की खेती के लिए पौधों की उचित संख्या के लिए आवश्यक बीज दर व पंक्ति से पंक्ति एवं पौधे से पौधे की उचित दूरी की महत्वपूर्ण भूमिका होती हैं|  इसलिए बारानी फसल के लिए बीज की गहराई 7 से 10 सेंटीमीटर और सिंचित क्षेत्र के लिए बीज की बुवाई 5 से 7 सेंटीमीटर गहराई पर करनी चाहिये| फसल की बुवाई पंक्ति से पंक्ति की दूरी 30 से 45 सेंटीमीटर रखनी चाहिये और पंक्ति में पौधे से पौधे की दुरी 8 से 10 सेंटीमीटर उचित मानी गई है|

चने की फसल में खाद एवं उर्वरक

सामान्य स्थिति में चने की खेती के लिए 20 किलोग्राम नत्रजन, 40 किलोग्राम फास्फोरस, 20 किलोग्राम पोटाश एवं 20 किलोग्राम गंधक प्रति हेक्टेयर संस्तुत की गई है| जिन क्षेत्रों की मिटटी में बोरान या मोलिब्डेनम की कमी हो वहाँ 10 किलोग्राम बोरेक्स पाउडर या 1.0 किलोग्राम अमोनियम मोलिब्डेट प्रति हेक्टेयर का प्रयोग करना चाहिए|

असिंचित क्षेत्रों में मृदा में नमी की कमी की अवस्था में 2 प्रतिशत यूरिया के घोल का छिड़काव फली बनने की अवस्था में करने पर उपज में वृद्धि होती है| अंतिम जुताई के समय मिटटी में 3 से 5 टन गोबर की खाद या कम्पोष्ट का उपयोग लाभदायक पाया गया है|

चने की खेती के लिए सिंचाई प्रबंधन

चने की खेती मुख्यतः असिंचित अवस्था में की जाती है| जहाँ पर सिंचाई के लिए सीमित जल उपलब्ध हो, वहाँ फूल आने के पहले (बुवाई के 50 से 60 दिन बाद) एक हल्की सिंचाई करें| सिंचित क्षेत्रों में दूसरी सिंचाई फली बनते समय अवश्य करें| सिंचाई करते समय यह ध्यान दें कि खेत के किसी भाग में जल भराव की स्थिति न हो अन्यथा फसल को नुकसान हो सकता है| फूल आने की स्थिति में सिंचाई नहीं करनी चाहिए|

यह भी पढ़ें- रिजका की खेती: जाने किस्में, देखभाल और पैदावार

चने की खेती में खरपतवार नियंत्रण

खरपतवार चने की खेती को 50 से 60 प्रतिशत तक नुकसान पहुंचाते हैं| अतः खरपतवार नियंत्रण फसल उत्पादन तकनीक का अभिन्न अंग है| चना की फसल में खरपतवार नियंत्रण के लिए पेन्डीमेथालिन 30 ई सी को 3 से 4 लीटर प्रति हेक्टेयर की दर से 400 से 500 लीटर पानी में घोलकर बुवाई के 48 घंटे के अन्दर छिड़काव करना चाहिए| इसके बाद भी यदि खरपतवार पुनः दिखाई दे तो 30 से 35 दिन बाद एक निकाई करें| जिन क्षेत्रों में घास प्रजाति के खरपतवार अधिक हों वहाँ क्यूजालोफोप-इथाईल 5.0 ई सी, 4 मिलीलीटर प्रति लीटर पानी में मिलाकर बुवाई के 20 से 25 दिन बाद छिड़काव करें|

चने की खेती में कीट नियंत्रण

चने की खेती में मुख्य रूप से फली भेदक कीट का प्रकोप अधिक होता है| देर से बुवाई की जाने वाली फसलों में इसका प्रकोप अधिक होता है| फली भेदक के नियंत्रण के लिए इण्डेक्सोकार्ब (2 मिलीलीटर प्रति लीटर पानी) या स्पाइनोसैड (0.4 मिलीलीटर प्रतिलीटर पानी) या इमामेक्टीन बेन्जोएट (0.4 मिलीलीटर प्रति लीटर पानी) का छिड़काव करें|

एन पी वी उपलब्ध होने पर इसका 250 लार्वा समतुल्य 400 से 500 लीटर पानी में घोलकर 2 से 3 बार छिड़काव कर सकते हैं| इसी प्रकार 5 प्रतिशत नीम की निबौली के सत का प्रयोग भी इसके नियंत्रण के लिए कर सकते हैं| कीट रोकथाम की अधिक जानकारी के लिए यहाँ पढ़ें- चना के प्रमुख कीट एवं उनकी रोकथाम

यह भी पढ़ें- गाजर की खेती: किस्में, प्रबंधन, देखभाल और पैदावार

चने की खेती में रोग नियंत्रण

चने की खेती में मुख्य रूप से उकठा एवं शुष्क मूल विगलन रोग होता है| फसल को इनसे बचाने के लिए बुवाई पूर्व बीज को फफूंदीनाशक जैसे 1.0 ग्राम बीटावेक्स + 4 ग्राम ट्राईकोडरमा प्रति किलोग्राम बीज की दर से उपचारित करें| जिन क्षेत्रों में इन रोगों का अधिक प्रकोप हो, वहाँ पर उकठा एवं शुष्क मूल विगलन रोग रोधी किस्मों का प्रयोग करें| चने की खेती में रोग नियंत्रण की अधिक जानकारी के लिए यहाँ पढ़ें- चना के प्रमुख रोग एवं बीमारियाँ और उनकी रोकथाम

चने की खेती का पाले बचाव

चने की खेती में पाले के प्रभाव के कारण काफी क्षति हो जाती है| पाले के पड़ने की संभावना दिसम्बर से जनवरी में अधिक होती है| पाले के प्रभाव से फसल को बचाने के लिए फसल में गन्धक के तेजाब की 0.1 प्रतिशत मात्रा यानि एक लीटर गन्धक के तेजाब को 1000 लीटर पानी में घोल बनाकर छिड़काव करना चाहिये| पाला पड़ने की सम्भावना होने पर खेत के चारों और धुआं करना भी लाभदायक रहता है|

चने की फसल की कटाई

चने की खेती जब अच्छी प्रकार पक जाये तो कटाई करनी चाहिये| जब पत्तियाँ व फलियाँ पीली व भूरे रंग की हो जाये तथा पत्तियाँ गिरने लगे और दाने सख्त हो जाये तो फसल की कटाई कर लेनी चाहिये| कटाई की गई फसल जब अच्छी प्रकार सूख जाये तो थ्रेशर द्वारा दाने को भूसे से अलग कर लेना चाहिये तथा अच्छी प्रकार सुखाकर सुरक्षित स्थान पर भण्डारित कर लेना चाहिये|

चने की खेती से पैदावार

उपरोक्त उन्नत तकनीक का प्रयोग कर उगायी गई चने की खेती द्वारा 20 से 25 क्विटल उपज प्रति हैक्टेयर प्राप्त की जा सकती है|

यह भी पढ़ें- गन्ना की खेती: किस्में, प्रबंधन, देखभाल और पैदावार

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