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Home » Blog » लीची की खेती: किस्में, रोपाई, पोषक तत्व, सिंचाई, देखभाल, पैदावार

लीची की खेती: किस्में, रोपाई, पोषक तत्व, सिंचाई, देखभाल, पैदावार

September 25, 2018 by Bhupender Choudhary Leave a Comment

लीची की खेती कैसे करें

लीची का फल अपने आकर्षक रंग, स्वाद और गुणवत्ता के कारण भारत में ही नहीं बल्कि विश्व में अपना विशिष्ट स्थान बनाए हुए है| लीची उत्पादन में भारत का विश्व में चीन के बाद दूसरा स्थान है| पिछले कई वर्षों में इसके निर्यात की अपार संभावनाएँ विकसित हुई हैं| परन्तु अन्तरराष्ट्रीय बाजार में बड़े एवं समान आकार तथा गुणवत्ता वाले फलों की ही अधिक मांग है| अतः अच्छी गुणवत्ता वाले फलों के उत्पादन की तरफ विशेष ध्यान देने की आवश्यकता है| इसकी खेती के लिए एक विशिष्ट जलवायु की आवश्यकता होती है, जो सभी स्थानों पर उपलब्ध नहीं है|

अतः लीची की बागवानी मुख्य रूप से बिहार, उत्तर प्रदेश, झारखण्ड में की जाती है| इसके अतिरिक्त पश्चिम बंगाल, पंजाब और हरियाणा के कुछ क्षेत्रों में इसके सफल उत्पादन का प्रयास किया जा रहा है| हमारे देश की लीची अपनी गुणवत्ता के लिए देश-विदेश में प्रसिद्ध हो रही है| लीची के फल पोषक तत्वों से भरपूर एवं स्फूर्तिदायक होते हैं| इसके फल में शर्करा (11 प्रतिशत), प्रोटीन (0.7 प्रतिशत), वसा (0.3 प्रतिशत) और अनेक विटामिन प्रचुर मात्रा में पाए जाते हैं|

लीची का फल मरीजों एवं वृद्धों के लिए भी उपयोगी माना गया है| लीची के फल मुख्यतः ताजे रूप में ही खाए जाते हैं| इसके फलों से अनेक प्रकार के परिरक्षित पदार्थ जैसे- जैम, पेय पदार्थ (शरबत, नेक्टर, कार्बोनेटेड पेय) एवं डिब्बा बंद फल तैयार किए जाते है| लीची का शर्बत अपने स्वाद एवं खुशबू के लिए लोकप्रिय होता जा रहा है| लीची-नट’, फलों को सुखाकर बनाया जाता है| भारत में लीची का ताजा फल मई से जुलाई तक उपलब्ध होता है, जिसे अन्तरराष्ट्रीय बाजार में निर्यात करके विदेशी मुद्रा अर्जित की जा सकती है|

चूंकि जब भारत में लीची तैयार होती है उस समय अन्तरराष्ट्रीय बाजार में लीची फलों का अभाव रहता है| अतः भारत अन्तरराष्ट्रीय बाजार में मुख्य निर्यातक के रूप में स्थापित हो सकता है| चूँकि लीची बहुत महत्व का फल है| इसलिए यदि बागान बन्धु इसकी बागवानी वैज्ञानिक तकनीक से करें, तो इसकी फसल से अधिकतम तथा गुणवत्तायुक्त उत्पादन प्राप्त किया जा सकता है| इस लेख में लीची की वैज्ञानिक तकनीक से बागवानी कैसे करें की पूरी जानकारी का उल्लेख किया गया है|

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उपयुक्त जलवायु

समशीतोष्ण जलवायु लीची के उत्पादन के लिए बहुत ही उपयुक्त पायी गई है| ऐसा देखा गया है, कि जनवरी से फरवरी माह में आसमान साफ रहने, तापमान में वृद्धि एवं शुष्क जलवायु होने से लीची में अच्छा मंजर आता है, जिसमें ज्यादा फूल एवं फल लगते हैं| मार्च एवं अप्रैल में गर्मी कम पड़ने से लीची के फलों का विकास अच्छा होता है, साथ ही अप्रैल से मई में वातावरण में सामान्य आर्द्रता रहने से फलों में गूदे का विकास एवं गुणवत्ता में सुधार होता है| सम आर्द्रता से फलों में चटखन भी कम हो जाती है| फल पकते समय वर्षा होने से फलों का रंग एवं गुणवत्ता प्रभावित होती है|

भूमि का चयन

लीची की बागवानी के लिए सामान्य पी एच मान वाली गहरी बलुई दोमट मिट्टी अत्यन्त उपयुक्त होती है| उत्तरी भारत की कैलकेरियस मृदा जिसकी जल धारण क्षमता अधिक है, इसकी खेती के लिए उत्तम मानी गई है| लीची की खेती हल्की अम्लीय एवं लेटराइट मिट्टी में भी सफलतापूर्वक की जा रही है| अधिक जलधारण क्षमता एवं हूमस युक्त मिट्टी में इसके पौधों में अच्छी बढ़वार एवं फलोत्पादन होता है| जल भराव वाले क्षेत्र लीची के लिए उपयुक्त नहीं होते अतः इसकी खेती जल निकास युक्त उपरवार भूमि में करने से अच्छा लाभ प्राप्त होता है|

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उन्नत किस्में

अगेती किस्में- शाही, त्रिकोलिया, अझौली, ग्रीन और देशी प्रमुख है, जो 15 से 30 मई के आसपास पककर तैयार हो जाती है|

मध्यम किस्में- रोज सेन्टेड, डी-रोज, अर्ली बेदाना और स्वर्ण रूपा प्रमुख है, जो 1 से 20 जून के आसपास पककर तैयार हो जाती है|

पछेती किस्में- चाइना, पूर्वी और कसबा प्रमुख है, जो 10 से 25 जून के आसपास पककर तैयार हो जाती है| लीची की किस्मों के अधिक जानकारी के लिए यहाँ पढ़ें- लीची की उन्नत किस्में

प्रवर्धन तकनीक

लीची की व्यावसयिक खेती के लिए गूटी विधि द्वारा तैयार पौधों का ही उपयोग किया जाना चाहिए| बीजू पौधों में पैतृक गुणों के अभाव के कारण अच्छी गुणवत्ता के फल नहीं बनते हैं तथा उनमें फलन भी देर से होती है| गूटी से पौधे तैयार करने के लिए मई से जून के महीने में स्वस्थ एवं सीधी डाली चुन कर डाली के शीर्ष से 40 से 50 सेंटीमीटर नीचे किसी गांठ के पास गोलाई में 2 सेंटीमीटर चौड़ा छल्ला बना लेते हैं| छल्ले के ऊपरी सिरे पर आई बी ए के 2000 पी पी एम पेस्ट का लेप लगाकर छल्ले को नम मॉस घास से ढककर ऊपर से 400 गेज की सफेद पालीथीन का टुकड़ा लपेट कर सुतली से कसकर बाँध देना चाहिए|

गूटी बाँधने के लगभग 2 माह के अंदर जड़ें पूर्ण रूप से विकसित हो जाती है| अतः इस समय डाली की लगभग आधी पत्तियों को निकालकर एवं मुख्य पौधे से काटकर नर्सरी में आंशिक छायादार स्थान पर लगा दिया जाता है| मॉस घास के स्थान पर तालाब की मिट्टी (40 किलोग्राम), अरण्डी की खली (2 किलोग्राम), यूरिया (20.0 ग्राम) के सड़े हुए मिश्रण का भी प्रयोग कर सकते हैं| पूरे मिश्रण को अच्छी तरह मिलाकर एवं हल्का नम करके एक जगह ढेर कर देते हैं और उसे जूट के बोरे या पालीथीन से 15 से 20 दिनों के लिए ढक देते हैं|

जब गूटी बांधनी हो तब मिश्रण को पानी के साथ आँटे की तरह गूंथ कर छोटी-छोटी लोई (200 ग्राम) बना ले जिसे छल्लों पर लगाकर पालीथीन से बांध दें इस प्रकार गूटी बाँधने से जड़े अच्छी निकलती है तथा पौध स्थापना अच्छी होती है| लीची के प्रवर्धन की अधिक जानकारी के लिए यहाँ पढ़ें- लीची के पौधे कैसे तैयार करें

पौधा रोपण

लीची का पूर्ण विकसित वृक्ष आकार में बड़ा होता है| अतः इसे औसतन 10 X 10 मीटर की दूरी पर लगाना चाहिए| लीची के पौध की रोपाई से पहले खेत में रेखांकन करके पौधा लगाने का स्थान सुनिश्चित कर लेते हैं| तत्पश्चात् चिन्हित स्थान पर अप्रैल से मई माह में 90 x 90 x 90 सेंटीमीटर आकार के गड्ढे खोद कर ऊपर की आधी मिट्टी को एक तरफ तथा नीचे की आधी मिट्टी को दूसरे तरफ रख लेते हैं|

वर्षा प्रारम्भ होते ही जून के महीने में 2 से 3 टोकरी गोबर की सड़ी हुई खाद (कम्पोस्ट), 2 किलोग्राम करंज अथवा नीम की खली, 1.0 किलोग्राम हड्डी का चूरा अथवा सिंगल सुपर फास्फेट एवं 50 ग्राम क्लोरपाइीफास धूल 20 ग्राम फ्यूराडान 20 ग्राम थीमेट- 10 जी को गड्ढे की ऊपरी सतह की मिट्टी में अच्छी तरह मिलाकर गड्ढा भर देना चाहिए| गड्ढे को खेत की सामान्य सतह से 10 से 15 सेंटीमीटर ऊँचा भरना चाहिए|

वर्षा ऋतु में गड्ढे की मिट्टी दब जाने के बाद उसके बीचों बीच में खुरपी की सहायता से पौधे की पिंडी के आकार की जगह बनाकर पौधा लगा देना चाहिए| पौधा लगाने के पश्चात् उसके पास की मिट्टी को ठीक से दबा दें एवं पौधे के चारों तरफ एक थाला बनाकर 2 से 3 बाल्टी (25 से 30 लीटर) पानी डाल देना चाहिए| तत्पश्चात् वर्षा न होने की स्थिति में पौधों के पूर्णस्थापना होने तक पानी देते रहना चाहिए|

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खाद एवं उर्वरक

प्रारम्भ के 2 से 3 वर्षों तक लीची के पौधों को 30 किलोग्राम सड़ी हुई गोबर की खाद, 2 किलोग्राम करंज की खली, 250 ग्राम यूरिया, 150 ग्राम सिंगल सुपर फास्फेट तथा 100 ग्राम म्यूरेट ऑफ पोटाश प्रति पौधा प्रति वर्ष की दर से देना चाहिए| तत्पश्चात् पौधे की बढ़वार के साथ-साथ खाद की मात्रा में वृद्धि करते जाना चाहिए| करंज की खली एवं कम्पोस्ट के प्रयोग से लीची के फल की गुणवत्ता एवं पैदावार में वृद्धि होती है| लीची के पौधों में फल तोड़ाई के बाद नए कल्ले आते हैं, जिनपर अगले वर्ष फलन आती है|

इसलिए अधिक औजपूर्ण एवं स्वस्थ कल्लों के विकास के लिये खाद, फॉस्फोरस एवं पोटाश की सम्पूर्ण एवं नेत्रजन की दो तिहाई मात्रा जून से जुलाई में फल की तोड़ाई एवं वृक्ष के काट-छांट के साथ-साथ देना चाहिये| परीक्षण से यह देखा गया है, कि पूर्ण विकसित पौधों के तनों से 200 से 250 सेंटीमीटर की दूरी पर गोलाई में 60 सेंटीमीटर गहरी मिट्टी के मिश्रण से भर दें| इस प्रक्रिया से पौधों में नई शोशक जड़ों (फीडर रूट्स) का अधिक विकास होता है तथा खाद एवं उर्वरक का पूर्ण उपयोग होता है|

खाद देने के पश्चात् यदि वर्षा नहीं होती है, तो सिंचाई करना आवश्यक है| लीची के फलों के तोड़ाई के तुरन्त बाद खाद दे देने से पौधों में कल्लों का विकास अच्छा होता है तथा फलन अच्छी होती है| शेष नेत्रजन की एक तिहाई मात्रा फल विकास के समय जब फल मटर के आकार का हो जाएँ सिंचाई के साथ देना चाहिए|

अम्लीय मृदा में 10 से 15 किलोग्राम चूना प्रति वृक्ष 3 वर्ष के अन्तराल पर देने से उपज में वृद्धि देखी गई है| जिन बगीचों में जिंक की कमी के लक्षण दिखाई दे उनमें 150 से 200 ग्राम जिंक सल्फेट प्रति वृक्ष की दर से सितम्बर माह में अन्य उर्वरकों के साथ देना लाभकारी पाया गया है|

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सिंचाई एवं जल संरक्षण

लीची के छोटे पौधों में स्थापना के समय नियमित सिंचाई करनी चाहिये| जिसके लिये सर्दियों में 5 से 6 दिनों और गर्मी में 3 से 4 दिनों के अन्तराल पर थाला विधि से सिंचाई करनी चाहिए| लीची के पूर्ण विकसित पौधे जिनमें फल लगना प्रारम्भ हो गया हो उसमें फूल आने के 3 से 4 माह पूर्व (नवम्बर से फरवरी) पानी नहीं देना चाहिए| लीची के पौधों में फल पकने के छः सप्ताह पूर्व (अप्रैल के प्रारम्भ) से ही फलों की विकास तेजी से होने लगता है| अतः जिन पौधों में फलन प्रारम्भ हो गया है, उनमें इस समय उचित जल प्रबन्ध एवं सिंचाई की आवश्यकता पड़ती है|

पानी की कमी से फल का विकास रूक जाता है और फल चटखने लगते हैं| अतः उचित जल प्रबन्ध से गूदे का समुचित विकास होता है तथा फल चटखने की समस्या कम हो जाती है| विकसित पौधों में छत्रक के नीचे छोटे-छोटे फव्वारे लगाकर लगातार नमी बनाए रखी जा सकती है| शाम के समय बगीचे की सिंचाई करने से पौधों द्वारा जल का पूर्ण उपयोग होता है| बूंद-बूंद सिंचाई विधि द्वारा प्रतिदिन सुबह एवं शाम चार घंटा पानी (40 से 50) लीटर देने से लीची के फलों का अच्छा विकास होता है|

लीची के सफल उत्पादन के लिए मृदा में लगातार उपयुक्त नमी का रहना अतिआवश्यक है| जिसके लिए सिंचाई के साथ-साथ मल्चिंग द्वारा जल संरक्षण करना लाभदायक पाया गया है| पौधे के मुख्य तने के चारों तरफ सूखे खरपतवार या धान के पुआल की अवरोध परत बिछाकर मृदा जल को संरक्षित किया जा सकता है| इससे मृदा के भौतिक दशा में सुधार, खरपतवार नियंत्रण एवं उपज अच्छी होती है|

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देखभाल एवं काट-छाँट

लीची के पौधे लगाने के पश्चात् शुरूआत के 3 से 4 वर्षों तक समुचित देख-रेख करने की आवश्यकता पड़ती है| खासतौर से ग्रीष्म ऋतु में तेज गर्म हवा (लू) एवं शीत ऋतु में पाले से बचाव के लिए कारगर प्रबन्ध करना चाहिए| प्रारम्भ के 3 से 4 वर्षों में पौधों की अवांछित शाखाओं को निकाल देना चाहिए जिससे मुख्य तने का उचित विकास हो सके| तत्पश्चात् चारों दिशाओं में 3 से 4 मुख्य शाखाओं को विकसित होने देना चाहिए जिससे वृक्ष का आकार सुडौल, ढांचा मजबूत एवं फलन अच्छी आती है|

लीची के फल देने वाले पौधों में प्रतिवर्ष अच्छी उपज के लिए फल तोड़ाई के समय 15 से 20 सेंटीमीटर डाली सहित तोड़ने से उनमें अगले वर्ष अच्छे कल्ले निकलते हैं तथा उपज में वृद्धि होती है| पूर्ण विकसित पौधों में शाखाओं के घने होने के कारण पौधों के आन्तरिक भाग में सूर्य का प्रकाश नहीं पहुँच पाता है, जिससे अनेक कीटों एवं बीमारियों का प्रकोप देखा गया है| अध्ययन में यह भी देखा गया है, कि लीची के पौधों में अधिकतम फलन नीचे के एक तिहाई छत्रक से होती है और वृक्ष के ऊपरी दो तिहाई भाग से अपेक्षाकृत कम उपज प्राप्त होती है|

अतः पूर्ण विकसित पौधों के बीच की शाखाएँ जिनका विकास सीधा ऊपर के तरफ हो रहा है, को काट देने से उपज में बिना किसी क्षति के पौधों के अन्दर धूप एवं रोशनी का आवागमन बढ़ाया जा सकता है| ऐसा करने से तना वेधक कीड़ों का प्रकोप कम होता है तथा पौधों के अन्दर के तरफ भी फलन आती है| फल तोड़ाई के पश्चात् सूखी, रोगग्रसित अथवा कैंची से शाखाओं को काट देना चाहिए| पौधों की समुचित देख-रेख, गुड़ाई तथा कीड़े एवं बीमारियों से रक्षा करने से पौधों का विकास अच्छा होता है एवं उपज बढ़ती है|

पूरक पौधे एवं अन्तरशस्यन

लीची के वृक्ष के पूर्ण रूप से तैयार होने में लगभग 15 से 16 वर्ष का समय लगता है| अतः प्रारम्भिक अवस्था में लीची के पौधों के बीच की खाली पड़ी जमीन का सदुपयोग अन्य फलदार पौधों एवं दलहनी फसलों या सब्जियों को लगाकर किया जा सकता है| इससे किसान भाइयों को अतिरिक्त लाभ के साथ-साथ मृदा की उर्वरा शक्ति का भी विकास होता है| शोध कार्यों से यह पता चला है, कि लीची में पूरक पौधों के रूप में अमरूद, शरीफा एवं पपीता जैसे फलदार वृक्ष लगाए जा सकते हैं|

ये पौधे लीची के दो पौधों के बीच में रेखांकित करके 5 x 5 मीटर की दूरी पर लगाने चाहिए| इस प्रकार एक हेक्टेयर जमीन में लीची के 100 पौधे तथा 300 पूरक पौधे लगाए जा सकते हैं| अन्तशस्य के रूप में दलहनी, तिलहनी एवं अन्य फसलें जैसे बोदी, फ्रेंचबीन, भिण्डी, मूंग, कुल्थी, सरगुजा, मडुआ एवं धान आदि की खेती सफलतापूर्वक की जा सकती है|

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पुष्पन एवं फलन

गूटी द्वारा तैयार लीची के पौधों में चार से पाँच वर्षों के बाद फूल एवं फल आना आरम्भ हो जाता है| प्रयोग से यह देखा गया है, कि फूल आने के संभावित समय से लगभग तीन माह पहले पौधों में सिंचाई बंद करने से मंजर बहुत ही अच्छा आता है| लीची के पौधों में तीन प्रकार के फूल आते हैं| शुद्ध नर फूल सबसे पहले आते हैं| जो मादा फूल आने के पहले ही झड़ जाते हैं| अतः इनका उपयोग परागण कार्य में नहीं हो पाता है| कार्यकारी नर फूल जिनमें पुंकेसर भाग अधिक विकसित तथा अंडाशय भाग विकसित नहीं होता है, मादा फूल के साथ ही आते हैं|

इन्हीं नर पुष्पों से मधुमक्खियों द्वारा परागण होता है| लीची में उभयलिंगी मादा फूलों में ही फल का विकास होता है| इन फूलों में पुंकेसर अंडाशय के नीचे होता है, अतः स्वयं परागण न होकर कीटों द्वारा परागण की आवश्यकता होती है| इसलिये अधिक फलन के लिये मादा फूलों का समुचित परागण होना चाहिए और परागण के समय कीटनाशी दवाओं का छिड़काव नहीं करना चाहिए, इससे फलन प्रभावित होती है|

अच्छी फलन हेतु सुझाव

लीची के बगीचे में अच्छी फलन एवं उत्तम गुणवत्ता के लिये निम्नलिखित बिन्दुओं पर विशेष ध्यान देना चाहिए, जैसे-

1. मंजर आने के सम्भावित समय से तीन माह पहले पौधों में सिंचाई न करें तथा अन्तरशस्यन फसल न लगाएँ|

2. मंजर आने के 30 दिन पहले पौधों पर जिंक सल्फेट (2 ग्राम प्रति लीटर पानी) के घोल का पहला एवं 15 दिन बाद दूसरा छिड़काव करने से मंजर एवं फूल अच्छे होते हैं|

3. लीची में फूल आते समय पौधों पर कीटनाशी दवा का छिड़काव न करें तथा बगीचे में पर्याप्त संख्या में मधुमक्खी के छत्ते रखें|

4. फल लगने के एक सप्ताह बाद प्लैनोफिक्स (2 मिलीलीटर प्रति 4.8 लीटर) या एन ए ए (20 मिलीग्राम प्रति लीटर पानी) का एक छिड़काव करके फलों को झड़ने से बचाएँ|

5. फल लगने के 15 दिन बाद से बोरिक अम्ल (4 ग्राम प्रति लीटर) या बोरेक्स (5 ग्राम प्रति लीटर) पानी के घोल का 15 दिनों के अन्तराल पर तीन छिड़काव करने से फलों का झड़ना कम हो जाता है, मिठास में वृद्धि होती है तथा फल के आकार एवं रंग में सुधार होने के साथ-साथ फल फटने की समस्या भी कम हो जाती है|

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समस्याएँ एवं निदान

फलों का फटना- फल विकसित होने के समय भूमि में नमी तथा तेज गर्म हवाओं से फल अधिक फटते हैं| यह समरूप फल विकास की द्वितीय अवस्था (अप्रैल के तृतीय सप्ताह) में आती है| जिसका सीधा संबंध भूमि में जल स्तर तथा नमी धारण करने की क्षमता से है| सामान्य तौर पर जल्दी पकने वाली किस्मों में फल चटखन की समस्या देर से पकने वाली किस्मों की अपेक्षा अधिक पायी जाती है|

इसके निराकरण के लिए वायु रोधी वृक्षों को बाग के चारों तरफ लगाएँ तथा अक्टूबर माह में पौधों के नीचे मल्चिंग करें| मृदा में नमी बनाए रखने के लिए अप्रैल के प्रथम सप्ताह से फलों के पकने एवं उनकी तोडाई तक बाग की हल्की सिंचाई करें और पौधों पर जल छिड़काव करें|

परीक्षणों से यह निष्कर्ष निकाला गया है, कि पानी के उचित प्रबन्ध के साथ-साथ फल लगने के 15 दिनों के बाद से 15 दिनों के अन्तराल पर पौधों पर बोरेक्स (5 ग्राम प्रति लीटर) या बोरिक अम्ल (4 ग्राम प्रति लीटर) के घोल का 2 से 3 छिड़काव करने से फलों के फटने की समस्या कम हो जाती है एवं पैदावार अच्छी होती है|

फलों का झड़ना- भूमि में नेत्रजन एवं पानी की कमी तथा गर्म एवं तेज हवाओं के कारण लीची के फल छोटी अवस्था में ही झड़ने लगते हैं| खाद एवं जल की उचित व्यवस्था करने से फल झड़ने की समस्या नहीं आती है| फल लगने के एक सप्ताह पश्चात् प्लैनोफिक्स (2 मिलीलीटर प्रति 4.8 लीटर) या एन ए ए (20 मिलीग्राम प्रति लीटर) पानी के घोल का एक छिड़काव करने से फलों को झड़ने से बचाया जा सकता है|

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कीट रोकथाम

फल छेदक- यह फल के ऊपर वाले छिल्के से भोजन लेता है और फल को नुकसान पहुंचाता है| छोटे-छोटे बारीक छेद फलों के ऊपर देखने को मिलते हैं| रोकथाम हेतु बाग को साफ रखें, प्रभावित और गिरते हुए फल को दूर ले जाकर नष्ट कर दें| इसके साथ साथ निंबीसाइडिन 50 ग्राम + साइपरमैथरिन 25 ई सी 10 मिलीलीटर और डाइक्लोरवास 20 मिलीलीटर को प्रति 10 लीटर पानी में मिलाकर फल बनने के समय और रंग बनने के समय छिड़काव करें, 7 से 10 दिनों के फासले पर दोबारा छिड़काव करें| फल बनने के समय डाइफलूबैनज़िओरॉन 25 डब्लयु पी 2 ग्राम प्रति लीटर के हिसाब से छिड़काव करें|

पत्तों का सुरंगी कीट- इसका प्रभाव दिखाई देने पर प्रभावित पत्तों को तोड़ देना चाहिए| डाइमैथोएट 30 ई सी 200 मिलीलीटर या इमीडाक्लोप्रिड 17.8 एस एल 60 मिलीलीटर को 150 लीटर पानी में मिलाकर फल लगने के समय छिड़काव करें, 10 से 15 दिनों के अंतराल पर फिर दोहराएं|

जूं- यह लीची की फसल को लगने वाला अत्यधिक नुकसानी कीड़ा है| इसका लार्वा और कीड़ा पत्तों के नीचे की तरफ और तने आदि का रस चूस लेता है| इसका शिकार हुए पीले और पत्ते मुड़ने शुरू हो जाते हैं और बाद में झड़ कर गिर पड़ते हैं| इसकी रोकथाम के लिए प्रभावित हिस्सों की छंटाई करके उन्हें नष्ट कर देना चाहिए| इसके साथ साथ डीकोफोल 17.8 ई सी 3 मिलीलीटर प्रति लीटर पानी में मिलाकर 7 दिनों के फासले के दौरान छिड़काव करें|

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रोग रोकथाम

पौधों का सूखना और जड़ गलन- लीची की खेती में इस बीमारी के कारण पौधे की 1 या 2 टहनियां या सारा पौधा सूखना शुरू हो जाता है| यदि इस बीमारी का इलाज जल्दी नहीं किया जाए तो जड़ गलन की बीमारी वृक्ष को बहुत तेजी से सुखा देती है| रोकथाम हेतु नए बाग लगाने से पहले खेत को साफ करें और पुरानी फसल की जड़ों को खेत में से बाहर निकाल दें पौधे के आस-पास पानी खड़ा ना होने दें और सही जल निकास का ढंग अपनाएं| पौधे की छंटाई करें और फालतू टहनियों को काट दें|

एंथ्राक्नोस- इस रोग के कारण चॉकलेटी रंग के बेढंगे आकार के पत्तों, टहनियों, फूलों और फलों के ऊपर धब्बे नज़र आते हैं| फालतू टहनियों को हटा दें और पौधे की अच्छे ढंग से छंटाई कर लें| फरवरी के महीने में बोर्डीऑक्स का छिड़काव करें, अप्रैल और अक्तूबर के महीने में कैप्टान डब्लयुपी 0.2 प्रतिशत का छिड़काव करें|

सफेद धब्बे- इस रोग के कारण पत्तों, फूलों और कच्चे फलों के ऊपर सफेद धब्बों के साथ भूरे दाग नज़र आते हैं| इससे पके हुए फलों को भी नुकसान होता है| दिन के समय ज्यादा तापमान और रात के समय कम तापमान, ज्यादा नमी और लगातार बारिश का पड़ना इस बीमारी के फैलने का कारण होता है| रोकथाम हेतु कटाई के बाद बाग की अच्छी तरह से सफाई करें| सर्दियों में इस बीमारी से बचने के लिए कॉपर ऑक्सीक्लोराइड की छिड़काव करें| लीची में कीट एवं रोग नियंत्रण की अधिक जानकारी के लिए यहाँ पढ़ें- लीची में कीट एवं रोग रोकथाम कैसे करें

पैदावार

लीची के पौधों में जनवरी से फरवरी में फूल आते हैं एवं फल मई से जून में पक कर तैयार हो जाते हैं| फल पकने के बाद गहरे गुलाबी रंग के हो जाते हैं और उनके ऊपर के छोटे-छोटे उभार चपटे हो जाते हैं| प्रारम्भिक अवस्था में लीची के पौधों से उपज कम मिलती है| परन्तु जैसे-जैसे पौधों का आकार बढ़ता है, फलन एवं पैदावार में वृद्धि होती है| पूर्ण विकसित 15 से 20 वर्ष के लीची के पौधे से औसतन 2 से 3 क्विंटल तक फल प्राप्त किये जा सकते हैं|

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