• Skip to primary navigation
  • Skip to main content
  • Skip to primary sidebar
Dainik Jagrati

Dainik Jagrati

Hindi Me Jankari Khoje

  • Agriculture
    • Vegetable Farming
    • Organic Farming
    • Horticulture
    • Animal Husbandry
  • Career
  • Health
  • Biography
    • Quotes
    • Essay
  • Govt Schemes
  • Earn Money
  • Guest Post
Home » फरवरी माह के कृषि कार्य: नियमित देखभाल और बेहतर पैदावार

फरवरी माह के कृषि कार्य: नियमित देखभाल और बेहतर पैदावार

February 7, 2024 by Bhupender Choudhary Leave a Comment

फरवरी माह के कृषि कार्य: नियमित देखभाल और बेहतर पैदावार

फरवरी माह जिसे आप माघ-फाल्गुन भी कहते हैं, बसंत पंचमी का त्यौहार लेकर आता है| किसान समृद्धि हेतु नयी तकनीकों, जलवायु संबंधित जानकारी और मौसम के पूर्वानुमान का उपयोग, उन्नत प्रजातियों के गुणवत्ता वाले बीज, एकीकृत पोषक तत्व प्रबंधन, फसलों में समेकित रोग और कीट प्रबंधन, फसल विशेष संबंधित नवीनतम सस्य क्रियाओं द्वारा फसल उत्पादन, विभिन्न सब्जी, फल और बागवानी और पुष्प तथा सगंधीय फसलों की देखभाल, बेमौसम सब्जी उत्पादन, उन्नत मशीनीकरण, बाजारोन्मुखी खाद्य उत्पादों की जानकारियां आदि की उपलब्धता बहुत ही आवश्यक हैं|

अपने उत्पादों की अवश्यंभावी आमदनी हेतु कटाई उपरान्त तकनीकियां और फल व सब्जी प्रसंस्करण विधियां अपनाने की भी किसानों को नितांत आवश्यकता है| फरवरी माह में किए जाने वाले प्रमुख कृषि कार्यों पर जानकारी नीचे दी गयी है|

फरवरी महीने के मुख्य कृषि कार्य

गेहूं और जौ की फसल

फसल की सिंचाई और को गिरने से बचाएं: फसल को गिरने से बचाने के लिए बाली निकलने के बाद सिंचाई वायु की गति के अनुसार करें| समय पर बोई गई गेहूं की में फूल आने लगते हैं, इस दौरान फसल को सिंचाई की बहुत जरूरत होती है| गेहूं में समय से बुआई के हिसाब से तीसरी सिंचाई गांठ बनने (बुआई के फसल 60-65 दिनों बाद) की अवस्था और चौथी सिंचाई फूल आने से पूर्व (बुआई के 80-85 दिनों बाद) तथा पांचवीं सिंचाई दूधिया (बुआई के 110-115 दिनों बाद ) अवस्था में करें|

पछेती या देर से बोयी गयी गेहूं की फसल में कम अंतराल पर सिंचाई की आवश्यकता होती है| इसलिए फसल में अभी क्रांतिक अवस्थाओं जैसे- शीर्ष जड़ें निकलना, कल्ले निकलते समय, बाली आते समय, दानों की दूधिया अवस्था और दाना पकते समय सिंचाई करनी चाहिए|

जौ फसल की सिंचाई: जौ की फसल में दूसरी सिंचाई गांठ बनने की अवस्था ( बुआई के 55-60 दिनों बाद) में और तीसरी सिंचाई दूधिया अवस्था (बुआई के 95-100 दिनों बाद) में करें| जौ की फसल में निराई-गुड़ाई का अच्छा प्रभाव होता है| खेत में यदि कंडुवा रोगग्रस्त बाली दिखाई दे तो उसे निकालकर जला दें| क्षारीय एवं लवणीय मृदा में अधिक संख्या में हल्की सिंचाई देना, ज्यादा गहरी तथा कम सिंचाई देने की अपेक्षाकृत उत्तम माना जाता है|

धारीदार या पीला रतुआ पत्तों पर पीले, छोटे-छोटे कील पंक्तियों में, बाद में पीले रंग के हो जाते हैं| कभी-कभी ये कील पत्तियों के डंठलों पर भी पाए जाते हैं। रतुआरोधी प्रजातियों का प्रयोग करें| काले रतुआ लाल भूरे से लेकर काले रंग के लम्बे कील पत्तियों के डंठल पर पाये जाते हैं| इस रोग की रोकथाम के लिए प्रति हैक्टर 2 किग्रा डाइथेन जेड-78 (जिनेब) का छिड़काव करें| 500-600 लीटर घोल एक हैक्टर क्षेत्रफल के लिए काफी रहता है।

पानी निकासी: जौ एवं गेहूं इत्यादि के जिन खेतों में अधिक वर्षा का पानी भर जाता है, उनमें पानी निकालने के बाद नाइट्रोजन के लिए सीएएन डालने से कुछ मात्रा में ऑक्सीजन की मात्रा बढ़ जाती है| अधिक पानी भर जाने से ऑक्सीजन की कमी हो जाती है| इसलिए सीएएन की सिफारिश की जाती है|

मैंगनीज की कमी: मैंगनीज की कमी के लक्षण गेहूं की ऊपरी पत्तियों पर पीली धारियों के रूप में नसों के बीच में प्रकट होते हैं, जबकि नसें स्वयं हरी रहती हैं| कुछ पौधों में नसों के बीच भूरे रंग के धब्बे बनते हैं, जो आगे चलकर बड़े धब्बों का रूप ले लेते हैं| फसलों में मैंगनीज की कमी के लक्षण दिखाई देते ही तुरन्त दूर करने का उपाय करना चाहिए| प्रायः 0.5 प्रतिशत मैंगनीज सल्फेट के तीन छिड़काव 10-15 दिनों के अंतराल पर करने से मैंगनीज की कमी का नियंत्रण हो जाता है| इससे गेहूं के उत्पादन में तीन गुना तक की वृद्धि पायी गयी है|

गेहूं में जस्ता की कमी: जस्ता के प्रयोग की मात्रा जस्ता की कमी, मृदा एवं फसल का प्रकार आदि पर निर्भर करती है| खड़ी फसल में कमी के लक्षण दिखाई देने पर 0.5 प्रतिशत जिंक सल्फेट के घोल का छिड़काव 10 दिनों के अंतराल पर 2-3 बार करना चाहिए| लोहे की कमी की पूर्ति पर्णीय छिड़काव से भी की जा सकती है| गेहूं, धान, गन्ना, मूंगफली, सोयाबीन आदि में 1-2 प्रतिशत आयरन सल्फेट का पर्णीय छिड़काव, मृदा अनुप्रयोग की अपेक्षा अधिक लाभकारी पाया गया है|

पीला रतुआ रोग: इस रोग के लक्षण जनवरी के अन्तिम सप्ताह या फरवरी के प्रारम्भ में पत्तियों पर पिन के सिर जैसे छोटे-छोटे, अण्डाकार, चमकीले पीले रंग के धब्बे के रूप में दिखाई देते हैं| ये पत्ती की शिराओं के बीच में पंक्तियों में होने से पीले रंग की धारी बनाते हैं| इस रोग की रोकथाम हेतु खड़ी फसल में प्रॉपीकोनेजोल 25 ईसी (टिल्ट ) या ट्राइडिमिफोन 25 डब्ल्यूपी या टैबूकोनेजोल 250 ईसी का 0.1 प्रतिशत घोल बनाकर छिड़काव करें| प्रति एकड़ के लिए 200 मिली दवा 200 लीटर पानी में मिलाकर छिड़काव करें|

पर्ण झुलसा रोग: यह एक जटिल रोग है, जो अल्टरनेरिया ट्रिटिसाइना, पायरेनोफोरा ट्रिटिसाई पेंटिस और बाइपोलेरिस सोरोकिनियाना द्वारा उत्पन्न होता है| इस रोग में पत्तियों पर बहुत छोटे, गहरे भूरे रंग के, पीले प्रभामंडल से घिरे धब्बे बनते हैं, जो बाद में परस्पर मिलकर पर्ण झुलसा रोग उत्पन्न करते हैं| इस रोग की रोकथाम हेतु खड़ी फसल में 0.1 प्रतिशत प्रॉपीकोनेजोल 25 ईसी (टिल्ट) का छिड़काव करें| 2.5 ग्राम प्रति किग्रा बीज की दर से कार्बोक्सिन (वीटावैक्स 75 डब्ल्यूपी) रसायन के साथ बीजोपचार कर बुआई करें| इस रोग की रोकथाम हेतु रोग प्रतिरोधी किस्में उगाएं|

अनावृत कण्डुआ: इस रोग में बालियों के दानों के स्थान पर काला चूर्ण बन जाता है, जो सफेद झिल्ली द्वारा ढका रहता है| बाद में झिल्ली फट जाती है और फफूंदी के असंख्य बीजाणु हवा में फैल जाते हैं| ये स्वस्थ बालियों में फूल आते समय उनका संक्रमण करते हैं|

करनाल बंट: आजकल गेहूं में टिलिशिया इण्डिका नामक कवक के कारण उत्पन्न इस रोग में थ्रेसिंग के बाद निकले दानों में बीज की दरार के साथ-साथ गहरे भूरे रंग के बीजाणु समूह देखे जा सकते हैं|

अनावृत कंडुआ और करनाल बंट का नियंत्रण: अनावृत कंडुआ और करनाल बंट के नियंत्रण हेतु थीरम 75 प्रतिशत डब्ल्यूएस की 2.5 ग्राम अथवा कार्बेन्डाजिम 50 प्रतिशत डब्ल्यूपी की 2.5 ग्राम अथवा कार्बाक्सिन 75 प्रतिशत डब्ल्यूपी की 2.0 ग्राम अथवा टेबूकोनाजोल 2 प्रतिशत डीएस की 1.0 ग्राम प्रति किग्रा बीज की दर से बीज उपचार कर बुआई करनी चाहिए|

मृदाजनित और बीजजनित रोगों के नियंत्रण हेतु जैव कवकनाशी ट्राइकोडर्मा विरिडी 1 प्रतिशत डब्ल्यूपी अथवा ट्राइकोडर्मा हारजिएनम 2 प्रतिशत डब्ल्यूपी को 2.5 किग्रा प्रति हैक्टर 60-75 किग्रा सड़ी हुई गोबर की खाद में मिलाकर हल्के पानी का छींटा देकर 8-10 दिनों तक छाया में रखने के उपरान्त बुआई पूर्व आखिरी जुताई पर मृदा में मिला देने से रोगों के प्रबंधन में सहायता मिलती है|

अतः स्वस्थ और निरोगी बीज पैदा करने हेतु बाली निकलते ही 2.0 किग्रा मैन्कोजेब या 500 मिली प्रॉपीकोनेजोल 25 ईसी (टिल्ट) को 500-600 लीटर पानी में घोलकर प्रति हैक्टर की दर से छिड़काव करें| चूर्णी फफूंद रोग के प्रबंधन हेतु रोग सहिष्णु किस्मों का प्रयोग करें| रोग के आते ही दाने बनने की अवस्था तक 0.1 प्रतिशत प्रॉपीकोनेजोल 25 ईसी का पत्तियों पर छिड़काव करें|

गेरुई या रतुआ रोग: गेहूं की फसल में गेरुई या रतुआ जैसे रोग के लक्षण दिखाई देने पर टेबूकोनेजोल 25 ईसी (फोलिकर) या ट्राइडमिफोन 25 डब्ल्यूपी (बेलिटॉन) या प्रॉपीकोनेजोल 25 ईसी ( टिल्ट ) का 0.1 प्रतिशत का घोल बनाकर पत्तियों पर छिड़काव करें| फैलाव तथा रोग के प्रकोप को देखते हुए दूसरा छिड़काव 15-20 दिनों के अंतराल पर करें| बुआई के लिए अच्छे और स्वस्थ बीज का ही प्रयोग करें| उत्तर-पश्चिमी मैदानी क्षेत्र के लिए एचडी 2967, एचडी 3086, डब्ल्यूएच 1105, एचडी 3043, एचडी 3059 और डीपी डब्ल्यू 621-50 आदि प्रजातियों का चयन किसान भाई करें|

माहूं का प्रकोप: यदि माहूं का प्रकोप हो तथा इन्हें खाने वाले गिडार की संख्या कम हो, तो क्वनालफॉस 25 ईसी का 1.0 लीटर या मोनोक्रोटोफॉस 25 ईसी का 1.4 लीटर दवा का मिथाइल-ओ-डीमेटान 25 ईसी की 1.0 लीटर दवा को 600-800 लीटर पानी में घोलकर प्रति हैक्टर की दर से छिड़काव करें|

चूहों का प्रकोप: गेहूं के खेत में चूहों का प्रकोप होने पर जिंक फॉस्फाइड से बने चारे अथवा एल्यूमिनियम फॉस्फाइड की टिकिया का प्रयोग करें| चूहों की रोकथाम के लिए सामूहिक प्रयास अधिक सफल होगा| अधिक पढ़ें- चूहों से खेती को कैसे बचाएं

रस चूसने वाले कीट: रस चूसने वाले कीट जैसे- चेंपा के लिए इमिडाक्लोरोप्रीड 200 एसएल या 20 ग्राम सक्रिय तत्व का छिड़काव खेत के चारों तरफ दो मीटर बार्डर पर करें|

गेहूं की खेती की अधिक जानकारी के लिए यहाँ पढ़ें- गेहूं की खेती

जौ की खेती की अधिक जानकारी के लिए यहाँ पढ़ें- जौ की खेती

चना की फसल 

1. चने में आवश्यकता हो, तो फूल आने से पूर्व ही सिंचाई करें| फूल आते समय सिंचाई नहीं करनी चाहिए अन्यथा फूल झड़ने से हानि होती है| चने की फसल में बारानी क्षेत्रों में जल उपलब्ध होने तथा जाड़े की वर्षा न होने पर बुआई के 75 दिनों बाद सिंचाई करना लाभप्रद होता है| असिंचित क्षेत्रों में चने की कटाई फरवरी के अंत में होने लग जाती है|

2. फेरोमोन ट्रैप ऐसा रसायन है, जो अपने ही वर्ग के कीटों को संचार द्वारा आकर्षित करता है| मादा कीट में जो हार्मोन निकलता है, यह उसी तरह की गंध से नर कीटों को आकर्षित करता है| इन रसायनों को सेक्स फेरोमोन ट्रैप कहते हैं| इसका उपयोग चने की फली छेदक कीट के फसल पर प्रकोप के समय की जानकारी हेतु किया जाता है| फेरोमोन का रसायन एक सेप्टा (कैप्सूल) में यौन – जाल में रख दिया जाता है| 5-6 फली छेदक कीट नर यौन-जाल में फंसे, उसी समय चने की फसल पर कीटनाशी दवाओं का प्रयोग कर देना चाहिये| 20 फेरोमोन ट्रैप प्रति हैक्टर की दर से लगायें|

3. किसान भाई यदि चने के खेत में चिड़िया बैठ रही हो, तो यह समझ लें कि चने में फलीछेदक का प्रकोप होने वाला है| इन रसायनों का प्रयोग तभी करना चाहिए, जब चना फलीछेदक का प्रकोप अत्यधिक हो, उसके नियंत्रण के लिए मोनोक्रोटोफॉस (36 ईसी) 750 मिली या क्यूनालफॉस (25 ईसी) 1.50 लीटर या इंडोक्सोकार्ब 1.0 मिली प्रति लीटर पानी या स्पाइनोसैड या इमामेक्टीन बेन्जोएट पानी में घोलकर छिड़काव अवश्य करें|

4. चने के फलीछेदक कीट नियंत्रण के लिए न्यूक्लियर पॉलीहाड्रोसिस वायरस 250 से 350 शिशु समतुल्य + 1.0 प्रतिशत टीनोपोल का प्रयोग फलीछेदक, 600 लीटर पानी में घोलकर प्रति हैक्टर की दर से छिड़काव फरवरी के अन्तिम सप्ताह में करने से अच्छी तरह नियंत्रित कर सकते हैं|

5. चने में 5 प्रतिशत एनएसकेई या 3 प्रतिशत नीम का तेल या 2 प्रतिशत नीम के पत्ते का निचोड़ भी फलीछेदक के नियंत्रण का एक अच्छा विकल्प है| बेसिलस थूरीनजेनसीस 1-15 किग्रा और बीवेरिया बेसियाना 1.0 किग्रा प्रति हैक्टर की दर से छिड़काव लाभदायक है|

6. चने की फसल में झुलसा रोग में निचली पत्तियों का पीला पड़कर झड़ना व फलियों का कम बनना व विरल या छिदा होना इस रोग के विशिष्ट लक्षण हैं| प्रारंभ में पत्तियों पर जलसंतृप्त बैंगनी रंग के धब्बे बनते हैं, जो बाद में बड़े होकर भूरे हो जाते हैं| फूल मर जाते हैं और फलियां बहुत कम बनती हैं| झुलसा रोग की रोकथाम के लिए मैन्कोजेब 75 प्रतिशत डब्ल्यूपी 2 ग्राम प्रति लीटर पानी या जिंक मैग्नीज कार्बामेंट 2.0 किग्रा अथवा जीरम 90: 2 किग्रा प्रति हैक्टर की दर घोल बनाकर छिड़काव करें|

7. चने की फसल में रस्ट रोग के लक्षण फरवरी व मार्च में दिखाई देते हैं| पत्तियों की ऊपरी सतह, टहनियों व फलियों पर हल्के भूरे काले रंग के उभरे हुए चकत्ते बन जाते हैं| इस रोग के नियंत्रण के लिए थायोफिनेट मिथाइल ( 70 प्रतिशत डब्ल्यू.पी.) 300 ग्राम या प्रोपिकोनाजोल (25 प्रतिशत ईसी) 200 मिली या मैंकोजेब ( 75 प्रतिशत डब्ल्यूपी) 500 ग्राम या प्रति एकड़ की दर से 200 लीटर पानी में घोलकर छिड़काव करें|

चने की खेती की अधिक जानकारी के लिए यहाँ पढ़ें- चने की खेती

शीतकालीन मक्का की खेती

सिंचाई: रबी मक्का में 4-5 सिंचाइयां करनी पड़ती हैं| शीतकालीन मक्के की फसल में पांचवीं सिंचाई (120-125 दिनों बाद) दाना भरते समय अवश्य करनी चाहिए| अगर आवश्यकता हो, तो अतिरिक्त सिंचाई खेत की नमी के अनुसार करना उपयुक्त होगा, अन्यथा पौधों की बढ़वार के साथ-साथ उप में भी कमी हो जायेगी|

तनाबेधक कीट: मक्के की फसल में तनाबेधक कीट और पत्ती लपेटक कीट की रोकथाम के लिए कार्बेरिल का 2.5 मिली प्रति लीटर दवा का घोल 500 लीटर पानी में बनाकर फसल पर छिड़काव करें|

रतुआ तथा चारकोल बंट: शरदकालीन मक्का में रतुआ तथा चारकोल बंट का खतरा होने पर 400-600 ग्राम डाइथेन एम 47 को 200-250 लीटर पानी में घोलकर 2-3 छिड़काव करें|

गुलाबी उकठा रोग: इस रोग में दाने पड़ने के बाद पौधे खेत में कम नमी के कारण सूखने लगते हैं| तने को तिरछा काटने पर संवहन नालिकायें निचली पोरों पर गुलाबी रंग की दिखाई पड़ती हैं तथा सिकुड़ जाती हैं|

काला चूर्ण उकठा रोग: कटाई से 10-15 दिनों पहले पौधे खेत में सूखे दिखाई देते हैं| तनों को तिरछा काटने पर जड़ों के पास संवहन नलिकायें सिकुड़ी हुई तथा चूर्ण से पोर भरे हुए दिखायी देते हैं| इसकी रोकथाम हेतु स्वस्थ बीज का प्रयोग तथा बीजजनित रोगों से बचाव हेतु बीज को थीरम 2.5 ग्राम अथवा कार्बेन्डाजिम 50 प्रतिशत की 2 ग्राम मात्रा में प्रति किग्रा बीज की दर से बीजोपचार करके बोना चाहिए| कवकजनित रोगों बचाव के लिए ट्राइकोडर्मा से 20 ग्राम प्रति किग्रा बीज की दर से बीज उपचारित करें|

जायद मक्का की खेती

जायद में मक्का की खेती भुट्टों एवं चारे, दोनों के लिए की जाती है| मक्का की खेती के लिए पर्याप्त जीवांश वाली दोमट मृदा अच्छी होती है| भली-भांति समतल एवं अच्छी जलधारण शक्ति वाली मृदा मक्का की खेती के लिए उपयुक्त होती है| पलेवा करने के बाद मिट्टी पलटने वाले हल से 10-12 सेंमी गहरी एक जुताई तथा उसके बाद कल्टीवेटर या देसी हल से दो-तीन जुताइयां करके पाटा लगाकर खेत की तैयारी कर लेनी चाहिए| मक्का की बुआई के लिए फरवरी का प्रथम सप्ताह सर्वोत्तम है| बुआई 20 फरवरी तक अवश्य कर लेनी चाहिए|

विलम्ब करने से जीरा निकलते समय गर्म हवायें चलने पर सिल्क तथा पराग कणों के सूखने की आशंका रहती है, जिससे दाना नहीं पड़ता है| जायद मौसम में संकर एवं संकुल प्रजातियों के लिए बीज दर 18-20 किग्रा एवं 20-25 किग्रा प्रति हैक्टर पर्याप्त होती है| बीज को 2 ग्राम कार्बेन्डाजिम या 2.5 ग्राम प्रति किग्रा थीरम रसायन से उपचारित करके बोयें| संकर व संकुल प्रजातियों की बुआई 60 सेंमी व पौधे से पौधे की बुआई 20-25 सेंमी की दूरी पर करनी चाहिए|

मक्का की खेती की अधिक जानकारी के लिए यहाँ पढ़ें- मक्का की खेती

मटर, चना और मसूर

1. मटर की फसल में फूल एवं शुरूआत के समय एक या दो सिंचाई करना लाभप्रद होता है| फूलों एवं पत्तियों को पाले से सुरक्षा हेतु भी सिंचाई की आवश्यकता होती है| देर से बोई गई मटर की फसल में फली आने पर फरवरी माह में सिंचाई करें| अगेती फसल पकने की अवस्था में होगी, अतः समय पर कटाई करें|

2. मटर की फसल में चूर्णिल आसिता रोग में पत्तियों तथा फलियों पर सफेद चूर्ण सा फैल जाता है| रोग के प्रारंभिक लक्षण दिखाई देते ही सल्फरयुक्त कवकनाशी जैसे सल्फेक्स 2.5 किग्रा प्रति हैक्टर या 3.0 किग्रा प्रति हैक्टर घुलनशील गन्धक या कार्बेन्डाजिम 500 ग्राम या ट्राइडोमार्फ (80 ईसी) 500 मिली की दर से 800-1000 लीटर पानी में घोलकर 15 दिनों के अंतराल में 2-3 छिड़काव करें|

3. रतुआ रोग से पौधों की वृद्धि रुक जाती है, पीले धब्बे पहले पत्तियों पर और फिर तने पर बनने लगते हैं| धीरे-धीरे ये हल्के भूरे रंग के हो जाते हैं| इस रोग के नियंत्रण के लिए डाइथेन एम-452 किग्रा या प्रोपीकोना 1 लीटर या हेक्साकोनाजोटा 1 लीटर/ हैक्टर की दर से 600 लीटर पानी में घोलकर 2-3 छिड़काव करें एवं उचित फसलचक्र अपनायें|

4. फरवरी माह में फलीबेधक कीट, फलियों में छेद बनाकर बीजों को नुकसान पहुंचाते हैं| इसलिए फलियों पर सूक्ष्म छिद्रों से इसके मौजूद होने का पता लग जाता है| फली निकलने की अवस्था में फसल पर इमिडाक्लोरोप्रीड 0.5 प्रतिशत या डाइमेथोएट 0.03 प्रतिशत का 400-600 लीटर पानी में घोल बनाकर छिड़काव करें| शीघ्र पकने वाली प्रजातियों का उपयोग और समय से बुआई फलीबेधक के प्रकोप से बचने में सहायक होते हैं|

5. पत्ती में सुरंग बनाने वाला (लीफ माइनर ) कीट: इस कीट के लार्वा मटर के पौधों की पत्तियों पर सुरंग बनाकर पत्तियों का हरा पदार्थ खाते हैं| यह कीट मटर की फसल को काफी हानि पहुंचाता है| इसके प्रभाव से पत्तियों पर टेढ़ी-मेढ़ी पंक्तियां जैसी बन जाती हैं| इस कीट के नियंत्रण के लिए फरवरी के दूसरे सप्ताह तक फूल आने से 15 दिन पहले फसल पर 0.025 प्रतिशत मिथाइल डैमीटान (100 मिली मैटासिस्टॉक्स 25 ईसी) या 1.50 लीटर साइपरमेथिन को 1000 लीटर पानी में घोल बनाकर खड़ी फसल पर 14 दिनों के अंतराल पर छिड़काव करें|

6. माहूं कीट पत्तियों व मुलायम तनों से रस चूसकर एक ऐसा चिपचिपा पदार्थ भारी मात्रा में स्रावित करता है, जिसके द्वारा काली फफूंद का आक्रमण इन भागों में हो जाता है| इसकी रोकथाम के लिए 0.05 प्रतिशत मेटासिस्टॉक्स या 0.05 प्रतिशत रोगोर के घोल का छिड़काव 15-20 दिनों के अंतराल पर फसल पर कीटों के दिखाई देते ही एक या दो बार आवश्यकतानुसार करें|

7. मसूर की फसल में माहूं कीट पत्तियों तथा अन्य कोमल भागों का रस चूस कर हानि पहुंचाता है| इससे ग्रसित भाग सूख जाते हैं और पौधा कमजोर हो जाता है| तेलिया या थ्रिप्स कीट होता है जो मसूर की पत्तियों, फूल एवं फलियों पर पाया जाता है| पत्तियों से वे रस चूसते हैं, जिससे उन पर सफेद रंग के चकत्ते पड़ जाते हैं| मृदा में नमी की कमी से पौधों को अधिक हानि हो सकती है| माहूं तथा तेलिया कीट के नियंत्रण के लिए फॉस्फोमिडान ( 85 ईसी) 250 मिली या क्लोरोपायरीफॉस (20 ईसी) 750 मिली या डायमिथियेट (30 ईसी) 500 मिली मात्रा को 500-600 लीटर पानी में घोलकर प्रति हैक्टर छिड़काव करें|

8. मसूर की फसल में पाउडरी मिल्ड्यू रोग एरीसायफी पोलीगोनी नामक कवक से होता है| फूल आने की अवस्था अति संवेदनशील है| अनुकूल परिस्थितियों में रोग बहुत अधिक हानि पहुंचाने में सक्षम है एवं धीरे-धीरे फैलकर तनों, पत्तियों एवं फलियों पर फैल जाता है| रोगी फसल पर ट्रायडोमार्फ 2 प्रतिशत प्रति हैक्टर की दर से घुलनशील गंधक के का छिड़काव करें|

9. मसूर की फसल में रतुआ रोग के लक्षण दिखाई देते ही रतुआरोधी प्रजाति इस रोग का प्रभाव निष्क्रिय करती है| फरवरी माह में रोग दिखाई देते ही फसल पर मैन्कोजेब के 0.25 प्रतिशत घोल (5.2 ग्राम दवा 1 लीटर पानी) का छिड़काव करना चाहिए|

मटर की खेती की अधिक जानकारी के लिए यहाँ पढ़ें- मटर की खेती

मसूर की खेती की अधिक जानकारी के लिए यहाँ पढ़ें- मसूर की खेती

राई – सरसों की फसल

1. फरवरी माह असिंचित क्षेत्रों में सरसों की कटाई का यह समय है| अतः फसल की समय पर कटाई कर लें|

2. सरसों की फसल में पेन्टेड बग कीट का नुकसान 4-5 पत्तियों की अवस्था तक अधिक रहता है| वयस्क कीट तथा उसका निम्फ पौधे के तने व पत्तियों से रस चूसते हैं| इससे पत्ते सफेद हो जाते हैं तथा बाद में मुरझाकर गिर जाते हैं| इस कीट का प्रकोप होने पर 2 प्रतिशत मिथाइल पैराथियान या 5 प्रतिशत मैलाथियान 20-25 किग्रा प्रति हैक्टर की दर से छिड़काव करें|

3. राई – सरसों की फसल में माहूं या चेंपा कीट पौधे के तने, फूलों व फलियों से रस चूसता है तथा फसल को भारी नुकसान पहुंचाता है| जब कीट का प्रकोप औसतन 25 कीट प्रति पौधा हो जाए, तो इसमें से किसी एक कीटनाशक जैसे – मैलाथियॉन 50 ईसी 1250 मिली या फॉस्फोमिडान 85 डब्ल्यू.एससी 250 मिली या थायोमिडान 25 ईसी 1000 मिली या मिथाइल डिमेटान 25 ईसी या डाइमेथोएट 30 ईसी या मोनोक्रोटोफॉस 35 डब्ल्यूएससी प्रति हैक्टर की दर से 600-800 लीटर पानी में घोल बनाकर छिड़काव करें|

4. फरवरी माह में सरसों की फसल में झुलसा या सफेद गेरुई रोग में पत्तियों की निचली सतह पर सफेद फफूंद की वृद्धि दिखाई देती है| इस रोग से ग्रसित पत्तियों पर हल्के भूरे धब्बे दिखाई देते हैं| इस रोग के लक्षण दिखने पर कॉपर ऑक्सीक्लोराइड या जीनेब या मैन्कोजेब या केप्टाफाल (फोलटाफ) 2 ग्राम प्रति लीटर पानी की दर से 500-800 लीटर पानी का घोल बनाकर 10-12 दिनों के अंतराल पर दो छिड़काव अवश्य करें|

सरसों की खेती की अधिक जानकारी के लिए यहाँ पढ़ें- सरसों की खेती

सूरजमुखी की फसल

1. सूरजमुखी की खेती तीनों मौसम में की जा सकती है| फिर भी बुआई का समय इस तरह से निश्चित कर लेना चाहिए कि फूल लगने के समय लगातार बूंदा-बांदी, बादल छाए रहने या तापमान 38 डिग्री सेल्सियस से अधिक रहने की स्थिति से बचा जा सके| सूरजमुखी की खेती अम्लीय व क्षारीय मृदा को छोड़कर सिंचित दशा वाली सभी प्रकार की मृदा में की जा सकती है, लेकिन दोमट मृदा सर्वोत्तम मानी जाती है| जहां इसकी पारंपरिक रूप से खेती नहीं होती है वहां इसकी बुआई बसंत ऋतु में जनवरी से फरवरी के अंत तक की जा सकती है|

2. सूरजमुखी की फसल के लिए अच्छी तरह से छनी हुई और उपजाऊ मृदा की आवश्यकता होती है| बीज दर मृदा की दशा, दानों के आकार, अंकुरण प्रतिशत, बोने का समय और बोने की विधि पर निर्भर करती है| सिंचाई पर निर्भर फसल के लिए 4-5 किग्रा प्रति हैक्टर बीज पर्याप्त होता है| पंक्ति से पंक्ति की दूरी 60 सेंमी एवं पौधे से पौधे की दूरी 30 सेंमी और बीज 4-5 सेंमी गहरा बोना चाहिए|

3. सूरजमुखी की संकर प्रजातियां उपयोग में लेवें| बीजों में उत्पन्न होने वाले रोगों की रोकथाम के लिए 3 ग्राम प्रति किग्रा बीज की मात्रा को कैप्टॉन या थीरम से उपचारित कर लेना चाहिए|

4. उर्वरकों का प्रयोग मृदा परीक्षण के आधार पर ही करना उचित रहता है| सिंचाई पर आधारित फसल के लिए 60:90:30 किग्रा प्रति हैक्टर नाइट्रोजन, फॉस्फोरस व पोटाश की सिफारिश की जाती है| बुआई के समय सूरजमुखी की फसल के लिए 50% नाइट्रोजन + फॉस्फोरस एवं पोटाश खाद की सम्पूर्ण मात्रा देनी चाहिए और शेष को दो बराबर – बराबर भाग करके बुआई के 30 और 55 दिनों के बाद डालना चाहिए| फॉस्फोरस को प्राप्त करने के लिए सिंगल सुपर फॉस्फेट को लेना चाहिए, जिससे गंधक की आवश्यकता भी पूर्ण होती है|

अंतर फसल प्रणाली: सूरजमुखी+मूंगफली (5:1 / 3:1),सूरजमुखी + सोयाबीन + सूरजमुखी (2:1) की दर से फसल बोना बहुत ही लाभदायक होता है|

सूरजमुखी की खेती की अधिक जानकारी के लिए यहाँ पढ़ें- सूरजमुखी की खेती

मेंथा की फसल

फरवरी में बोयी जाने वाली मेंथा एक प्रमुख नगदी फसल है| मेंथा की उन्नत प्रजातियां हिमालय, शिवालिक, हाइब्रिड – 77, कोशी, गोमती, एमएसएस -1 व ईसी-41911 आदि का चयन करें| मेंथा फसल के लिए मध्यम से लेकर हल्की भारी मृदा उपयुक्त रहती है| जल निकास का उचित प्रबंध आवश्यक है| मेंथा की बुआई पूरे फरवरी माह में कर सकते हैं| बुआई हेतु 400-500 किग्रा जड़ें प्रति हैक्टर पर्याप्त होती हैं|

जड़ों के 5-7 सेंमी लम्बे टुकड़े, जिनमें 3-4 गांठें हों, को काटकर 5-6 इंच की गहराई पर 45-60 सेंमी की दूरी पर बनी पंक्तियों में बुआई करें| अच्छी फसल लेने के लिए बुआई के समय 30 किग्रा नाइट्रोजन, 75 किग्रा फॉस्फोरस तथा 40 किग्रा पोटाश प्रति हैक्टर की दर से प्रयोग करें| बुआई के तुरन्त बाद एक हल्की सिंचाई अति आवश्यक है| अन्य सिंचाइयां आवश्यकतानुसार 10-15 दिनों के अंतराल पर करते रहें|

मेंथा की खेती की अधिक जानकारी के लिए यहाँ पढ़ें- मेंथा की खेती

चारे वाली फसलें

1. बरसीम, जई व रिजका की हर कटाई के बाद 18-20 दिनों के अंतराल पर सिंचाई करें, इससे अगली कटाई जल्दी मिलेगी| बरसीम या अन्य हरे चारे पशुओं की आवश्यकता से अधिक होने पर सुखाकर गर्मियों के लिए भंडारित कर लें|

2. जई में पहली कटाई, बुआई के 55 दिनों बाद करें और कटाई के बाद सिंचाई करके प्रति हैक्टर 20 किग्रा नाइट्रोजन की दूसरी टॉप ड्रेसिंग कर दें|

3. मक्के के लिए अफ्रीकन टॉल, गंगा – 2 व विजय प्रजातियों की बुआई के लिए 40 किग्रा बीज, चरी के लिए एमपी चरी, पूसा चरी – 23 व पायनियर की संकर चरी की बुआई 25 किग्रा तथा लोबिया की रशियन जाइंट, यूपीसी – 5286 प्रजातियों का 35 किग्रा बीज प्रति हैक्टर की दर से प्रयोग करना चाहिए|

4. गर्मी में चारे के लिए मक्का, ज्वार, लोबिया की बुआई फरवरी माह के दूसरे पखवाड़े से प्रारम्भ की जा सकती है|

5. फरवरी माह में बहुवर्षीय घासें खेत में या मेड़ों पर बहुवर्षीय घासें जैसे- नेपियर, गिनी, सिटेरिया आदि की रोपाई कर सकते हैं| इनमें रोपाई के समय 100 क्विंटल गोबर की खाद, 60 किग्रा नाइट्रोजन एवं 60 किग्रा फॉस्फोरस प्रति हैक्टर की दर से प्रयोग करें|

बरसीम की खेती की अधिक जानकारी के लिए यहाँ पढ़ें- बरसीम की खेती

रिजका की खेती की अधिक जानकारी के लिए यहाँ पढ़ें- रिजका की खेती

नेपियर की खेती की अधिक जानकारी के लिए यहाँ पढ़ें- नेपियर की खेती

अगर आपको यह लेख पसंद आया है, तो कृपया वीडियो ट्यूटोरियल के लिए हमारे YouTube चैनल को सब्सक्राइब करें| आप हमारे साथ Twitter और Facebook के द्वारा भी जुड़ सकते हैं|

Reader Interactions

Leave a Reply Cancel reply

Your email address will not be published. Required fields are marked *

Primary Sidebar

“दैनिक जाग्रति” से जुड़े

  • Facebook
  • Instagram
  • LinkedIn
  • Twitter
  • YouTube

करियर से संबंधित पोस्ट

आईआईआईटी: कोर्स, पात्रता, प्रवेश, रैंकिंग, कट ऑफ, प्लेसमेंट

एनआईटी: कोर्स, पात्रता, प्रवेश, रैंकिंग, कटऑफ, प्लेसमेंट

एनआईडी: कोर्स, पात्रता, प्रवेश, फीस, कट ऑफ, प्लेसमेंट

निफ्ट: योग्यता, प्रवेश प्रक्रिया, कोर्स, अवधि, फीस और करियर

निफ्ट प्रवेश: पात्रता, आवेदन, सिलेबस, कट-ऑफ और परिणाम

खेती-बाड़ी से संबंधित पोस्ट

June Mahine के कृषि कार्य: जानिए देखभाल और बेहतर पैदावार

मई माह के कृषि कार्य: नियमित देखभाल और बेहतर पैदावार

अप्रैल माह के कृषि कार्य: नियमित देखभाल और बेहतर पैदावार

मार्च माह के कृषि कार्य: नियमित देखभाल और बेहतर पैदावार

फरवरी माह के कृषि कार्य: नियमित देखभाल और बेहतर पैदावार

स्वास्थ्य से संबंधित पोस्ट

हकलाना: लक्षण, कारण, प्रकार, जोखिम, जटिलताएं, निदान और इलाज

एलर्जी अस्थमा: लक्षण, कारण, जोखिम, जटिलताएं, निदान और इलाज

स्टैसिस डर्मेटाइटिस: लक्षण, कारण, जोखिम, जटिलताएं, निदान, इलाज

न्यूमुलर डर्मेटाइटिस: लक्षण, कारण, जोखिम, डाइट, निदान और इलाज

पेरिओरल डर्मेटाइटिस: लक्षण, कारण, जोखिम, निदान और इलाज

सरकारी योजनाओं से संबंधित पोस्ट

स्वर्ण जयंती शहरी रोजगार: प्रशिक्षण, लक्षित समूह, कार्यक्रम, विशेषताएं

राष्ट्रीय युवा सशक्तिकरण कार्यक्रम: लाभार्थी, योजना घटक, युवा वाहिनी

स्वर्ण जयंती ग्राम स्वरोजगार: उद्देश्य, प्रशिक्षण, विशेषताएं, परियोजनाएं

प्रधानमंत्री सहज बिजली हर घर योजना | प्रधानमंत्री सौभाग्य स्कीम

प्रधानमंत्री वय वंदना योजना: पात्रता, आवेदन, लाभ, पेंशन, देय और ऋण

Copyright@Dainik Jagrati

  • About Us
  • Privacy Policy
  • Disclaimer
  • Contact Us
  • Sitemap