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डॉ भीमराव आंबेडकर के अनमोल विचार

by Bhupender Choudhary Leave a Comment

डॉ भीमराव आंबेडकर

भारतीय संविधान के निर्माता डॉ भीमराव आंबेडकर एक ऐसे राष्ट्र पुरुष थे, जिन्होंने समूचे देश के सम्बन्ध में, भारत के इतिहास के सम्बन्ध में एवं समाज परिवर्तन पर महत्त्वपूर्ण वैचारिक योगदान दिया है| डॉ भीमराव आंबेडकर एक विद्वान, लेखक, राजनीतिज्ञ, समाज-सुधारक, कानून विशेषज्ञ, शिक्षा शास्त्री और नवसमालोचक के रूप में नई पीढ़ी के सामने उदय हुए है|

डॉ भीमराव आंबेडकरअपने पिता के अलावा गौतम बुद्ध, ज्योतिबा फुले और कबीर से प्रभावित थे, जिन्हें अम्बेड़कर के तीन गुरू भी कहा जाता है| डॉ भीमराव आंबेडकर ने पाश्चात्य स्वतन्त्रता और मानवतावादी सम्बन्धी विचारों का ज्ञान प्रो. जॉन डेवी, जॉन स्टूअर्ट मिल, एडमण्ड ब्रुके और प्रो. हारोल्ड लॉस्की इत्यादि विचारकों से लिया| जिसका प्रमाण उनकी लिखितों और भाषणों में प्रयोग उद्धरणों से लगाया जा सकता है|

अत: कहा जा सकता है कि डॉ भीमराव आंबेडकर को पश्चिम ने उनके “हथियार” और पूर्व ने “आत्म-बल” दिया, जिसके आधार पर सामाजिक समानता और सामाजिक न्याय के लिए उन्होंने संघर्ष किया|

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डॉ भीमराव आंबेडकर आधुनिक भारत के महान चिंतक दार्शनिक, अर्थशास्त्री विधिवेता, शोषितों के मुक्ति-नायक, संघर्षशील सामाजिक कार्यकर्ता और संविधान निर्माता थे| वे स्वतन्त्रता-समानताबन्धुत्व के क्रान्तिकारी आदर्शों को भारतीय समाज में स्थापित करना चाहते थे| जो भी प्रथा, परम्परा, विचारधारा, कानून या धार्मिक मान्यता इन मूल्यों आदर्शों को प्राप्त करने में बाधा रही हैं, वे उनके प्रबल आलोचक रहे|

उन्होंने जातिप्रथा-छूआछूत और पूंजीवादी-सामन्ती विचारधारा की तमाम शोषणपरक प्रणालियों की इसी आधार पर आलोचना करके बहुआयामी व वस्तुपरक विश्लेषण किया| उनका विश्वास था कि अगर वे अपने संघर्ष में कामयाब हो जाते हैं तो यह किसी विशेष समुदाय के हित में नहीं होगा| बल्कि सभी भारतीयों के लिए एक वरदान बनेगा|

ऐसे में समाज परिवर्तन के इच्छुकों के लिए इस लेख में “डॉ भीमराव आंबेडकर के प्रेरणादायी संघर्षशील जीवन व क्रान्तिकारी विचारों से दोस्ती निहायत प्रासंगिक है|” डॉ भीमराव आंबेडकर के विचार:-

1. “यह कहने से बात नहीं बनती कि हर पुरानी बात सोने के बराबर होती है| लकीर के फकीर बनके काम नहीं चलता कि जो बाप-दादा करते आये हैं, वह सब औलाद को भी करना चाहिए| सोचने का यह तरीका ठीक नहीं है, परिस्थिति के बदलने के साथ-साथ विचार भी बदलने चाहिए यह जरूरी है|”

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2. मराड़ सत्याग्रह के समय उनके अनुयायियों ने मारपीट करने की ठानी तो डॉ भीमराव आंबेडकर ने कहा, “अपने से बाहर न होओ| अपने हाथ न उठाओ| अपने गुस्से को पीकर मन शांत रखो, हक के लिए झगड़ा नहीं करना है| हमें उनके वारों को सहना पड़ेगा और उन सनातनियों को अहिंसा की शक्ति के दर्शन करवाने होंगे|”

3. डॉ भीमराव आंबेडकर अपने मुक्ति आन्दोलन के बारे स्पष्टीकरण देते हुए कहा कि “मेरा ये आन्दोलन ब्राह्मणों के खिलाफ नहीं, ब्राह्मणवाद के खिलाफ है| सारे ब्राह्मण दलितों का विरोध करते हैं, ऐसी बात नहीं है और गैर-ब्राह्मणों में भी तो ऊंच-नीच का भेद रखने वाले लोग हैं, ये न भूलों|”

4. पहली गोलमेज सभा में 31 दिसम्बर 1930 को बाबा साहेब ने कहा, “बरतानवी हुकूमत कायम करने में जिन अछूतों को प्रयोग किया गया है, उनकी हालत सुधारने के लिए अंग्रेजों ने बिल्कुल ध्यान नहीं दिया| हिन्दू समाज द्वारा अछूतों पर अत्याचार हो रहे हैं| फिर भी आजादी के बाद ही उनका कल्याण सम्भव हो सकेगा|”

5. जब उन्हें एक बार सम्मान दिया गया तो अपनी सफलता का सेहरा जनता को देते हुए उन्होंने कहा, “हिन्दू समाज की आने वाली पीढी यह फैसला देगी कि मैंने अपने देश के लिए सही और नेक काम किया है, तुम लोग मुझे देवता न बनाओ|”

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6. संविधान के बारे में वे कहते है, “शरीर के पहरावे के लिए बनाये गये सूट की तरह, संविधान भी देश के योग्य होना चाहिए| जिस तरह कमजोर शरीर वाले व्यक्ति के कपड़े मेरे लिए ठीक नहीं है, उसी तरह देश के लिए वह कोई लाभ नहीं पहुंचा सकता| लोकतंत्र का अर्थ है बहुजन का राज| इसलिए इस देश में या तो हिन्दुओं का राज रहेगा या फिर इस बहुमत का जिसमें अछूत, आदिवासी और कम जनंसख्या वाले है, उनके प्रति क्या नीति अपनाई जायेगी, यह महत्वपूर्ण है|”

7. वे कहते हैं, “हमें किसी का आर्शीवाद नहीं चाहिए| हम अपनी हिम्मत, बुद्धि तथा कार्य योग्यता के बल पर अपने देश तथा अपने लिये पूरी लग्न के साथ काम करेंगे| जो भी जागृत है, संघर्ष करता है, उसे अंत में स्थायी न्याय मिल सकता है|”

8. डॉ भीमराव आंबेडकर ने अपने ग्रंथ ‘वु वर दि सुदराज’ कि भूमिका में लिखा है, “ऐतिहासिक सच की खोज करने के लिए मैं पवित्र धर्म ग्रन्थों का अनुवाद करना चाहता हूं| इससे हिन्दुओं के पता चल सकेगा कि उनके समाज, देश के पतन और विनाश का कारण बना है- इन धर्मों के सिद्धान्त| दूसरी बात यह है कि भवभूति के कथनानुनसार काल अनंत है और धरती अपार है, कभी न कभी कोई ऐसा इन्सान पैदा होगा, जो मैं कुछ कह रहा हूँ, उस पर विचार करेगा|” इस ग्रंथ को उन्होंने आधुनिक भारत के सबसे उत्तम पुरुष ज्योतिबा फुले को समर्पित किया है|

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9. बौद्ध धर्म के बारे में वे 15 मई 1956 को अपने भाषण में कहते हैं, “मुझे बौद्ध धर्म, उसके तीन सिद्धान्त ज्ञान, दया और बराबरी के कारण ज्यादा प्यारा है| परमात्मा या आत्मा समाज को, उसके पतन से नहीं बचा सकती है| बुद्ध की शिक्षा ही बिना खून क्रांति द्वारा साम्यवाद ला सकती है|”

10. धर्म के बारे में वे कहते हैं-

अ) समाज को बंधन की जरूरत है, उसे नीति चाहिए|

ब) यदि धर्म उपयोगी है, तो वह विवेक पर आधारित और उपयोगी होना चाहिए|

स) धर्म के नीति-नियम ऐसे होने चाहिए, जो बराबरी, स्वतन्त्रता और भाई-चारे के साथ जुड़े हो|

11. “ऊची इच्छा और आशावादी सोच के साथ ही ऊँची स्थिति को प्राप्त किया जा सकता है| जिसने अपने दिल में उम्मीद, उमंग और इच्छा की लौ जगा ली है, वही व्यक्ति सदा जिंदादिल रहता है| चरित्रवान् होना, उसकी वृद्धि करना, जिन्दगी का पहला फर्ज है उसका पूरी तरह विकास करो| उसे निर्मल बनाओ, पुरानी रूढियों और रिवाजों को दफना दो| नई कलम से नया सबक लिखो, हमेशा आशावान रहो| मेहनत और कुर्बानी से कर्तव्य पूरा होता है| इन्सान की अच्छी प्रथाओं से राष्ट्र और समाज बलवान तथा भाग्यशाली होते है|”

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12. “जिन लोगों की जन-आन्दोलनों में रूचि है, उन्हें केवल धार्मिक दृष्टिकोण अपनाना छोड़ देना चाहिए| उन्हें भारत के लोगों के प्रति सामाजिक एवं आर्थिक दृष्टिकोण ही अपनाना होगा|”

13. जीवन लंबा होने की बजाये महान होना चाहिए|

14. यदि हम एक संयुक्त एकीकृत आधुनिक भारत चाहते हैं, तो सभी धर्मों के शास्त्रों की संप्रभुता का अंत होना चाहिए|

15. मनुष्य नश्वर है, उसी तरह विचार भी नश्वर हैं| एक विचार को प्रचार-प्रसार की जरूरत होती है, जैसे कि एक पौधे को पानी की, नहीं तो दोनों मुरझाकर मर जाते हैं|

16. हिन्दू धर्म में विवेक, कारण और स्वतंत्र सोच के विकास के लिए कोई गुंजाइश नहीं है|

17. पति-पत्नी के बीच का संबंध घनिष्ठ मित्रों के संबंध के समान होना चाहिए|

18. जब तक आप सामाजिक स्वतंत्रता नहीं हासिल कर लेते, कानून आपको जो भी स्वतंत्रता देता है, वो आपके किसी काम की नहीं|

19. बुद्धि का विकास मानव के अस्तित्व का अंतिम लक्ष्य होना चाहिए|

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20. कानून और व्यवस्था राजनीतिक शरीर की दवा है और जब राजनीतिक शरीर बीमार पड़े तो दवा जरूर दी जानी चाहिए|

21. इतिहास बताता है कि जहां नैतिकता और अर्थशास्त्र के बीच संघर्ष होता है, वहां जीत हमेशा अर्थशास्त्र की होती है| निहित स्वार्थों को तब तक स्वेच्छा से नहीं छोड़ा गया है, जब तक कि मजबूर करने के लिए पर्याप्त बल न लगाया गया हो|

22. एक महान आदमी एक प्रतिष्ठित आदमी से इस तरह से अलग होता है कि वह समाज का नौकर बनने को तैयार रहता है|

23. हर व्यक्ति जो मिल के सिद्धांत कि ‘एक देश दूसरे देश पर शासन नहीं कर सकता’ को दोहराता है उसे ये भी स्वीकार करना चाहिए कि एक वर्ग दूसरे वर्ग पर शासन नहीं कर सकता|

24. समानता एक कल्पना हो सकती है, लेकिन फिर भी इसे एक गवर्निंग सिद्धांत रूप में स्वीकार करना होगा|

25. मैं ऐसे धर्म को मानता हूं, जो स्वतंत्रता, समानता और भाईचारा सिखाए|

डॉ भीमराव आंबेडकर के अनुसार एक देश के लिए इन चार मूल्यों स्वतन्त्रता, एकता, बंधुता और न्याय बहुत आवश्यक है| उनके अनुसार, जिस समाज में कुछ वर्गों के लोग जो कुछ चाहे वह सब कर सके और बाकि वह सब भी न कर सकें| जो उन्हें करना चाहिए, उस समाज के अपने गुण होंगे, लेकिन उसमें स्वतन्त्रता शामिल नहीं होगी| अगर इंसानों के अनुरूप जीने की सुविधा कुछ लोगों तक ही सीमित है, तब जिस सुविधा को आमतौर पर स्वतन्त्रता कहा जाता है, उसे विशेषाधिकार कहना उचित होगा|

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