जौ हमारे देश के शुष्क व अर्द्धशुष्क क्षेत्रों में उगाई जाने वाली प्रमुख रबी फसलों में से एक है| इसे कम पानी एवं नमकीन भूमि में उगाया जा सकता है| जौ फसल को मुख्य रूप से पशुओं को दाने के रूप में खिलाया जाता है| लेकिन अब माल्ट उद्योगों के स्थापित होने से उद्योग जगत में जौ की भारी मांग हो गई है|
सही किस्म और शुद्ध बीज, समुचित खाद एवं पानी की व्यवस्था होने पर भी किसान अच्छी पैदावार नहीं ले पा रहें है| इसका मुख्य कारण इसमें लगने वाले रोग हैं, जौ के प्रमुख रोगों के लक्षण और रोकथाम के उपाय नीचे दिये गये हैं| यदि आप जौ की खेती की अधिक जानकारी चाहते है, तो यहां पढ़ें- जौ की खेती की जानकारी
यह भी पढ़ें- गेहूं की उत्तम पैदावार के लिए मैंगनीज का प्रबंधन
जौ फसल के रोगों की रोकथाम
पीला रतुआ- जौ के पत्तों पर पीले रंग के छोटे-छोटे धब्बे, कतारों में बनते हैं| कभी-कभी ये धब्बे पचियों के डंठलों पर भी पाये जाते हैं| अधिक प्रकोप से बलियां भी रोगग्रस्त हो जाती हैं| यह रोग जनवरी के प्रथम पखवाड़े में दिखाई देने लगता है| जब औसत तापमान 11 से 15 डिग्री सैंटीग्रेड एवं नमी अधिक होती है| लंबे समय तक ठंडा मौसम रहने पर यह रोग पौधे की वृद्धि के साथ बढ़ता जाता है तथा दाने भी कमजोर बनते हैं|
रोकथाम- जौ की रोगरोधी एवं सहनशील किस्में जैसे- सी-164, बी जी- 25, बी जी-105, बी एच- 75 और बी एच- 393 को उगाएँ| रोग के नजर आते ही फसल पर डाईथेन एम- 45 या डाईथेन जैड- 78 का 800 ग्राम को 250 लिटर पानी प्रति एकड़ में मिलाकर छिड़काव करें| पहला छिड़काव तब करें, जब कहीं-कहीं बीमारी नजर आये, बाद में 10 से 15 दिन के अंतर से 2 या 3 छिड़काव करें|
भूरा या पत्तों का रतुआ- नारंगी रंग के गोल धब्बे बेतरतीब रूप से जौ की पत्तियों एवं कभी-कभी पत्तियों की डंठलों पर बनते हैं| जो बाद में काले रंग के हो जाते हैं| इस बीमारी का प्रकोप फरवरी के अंतिम सप्ताह में शुरू होता है तथा जब तक फसल हरी रहती है इसका प्रकोप बढ़ता जाता है|
रोकथाम- जौ की रोगरोधी किस्म बी एच- 393 जैसी किस्मों की बिजाई करें| रोग के नजर आते ही फसल पर डाईथेन एम- 45 या डाईथेन जैड- 78 का 800 ग्राम को 250 लीटर पानी प्रति एकड़ में मिलाकर छिड़काव करें| पहला छिड़काव तब करें, जब कहीं-कहीं बिमारी नजर आए| बाद में 10 से 15 दिन के अंतर से 2 या 3 छिड़काव करें|
यह भी पढ़ें- धान व गेहूं फसल चक्र में जड़-गांठ सूत्रकृमि रोग प्रबंधन
धारीदार पत्तों का रोग- इसमें जौ के पत्तों पर लंबी गहरी भूरी लाइनें पड़ जाती हैं, या जालीनुमा विकार दिखाई देता है| अधिक प्रकोप से पत्ते झुलस से जाते हैं| यह रोग जनवरी के अंत में दिखाई देता है|
रोकथाम- रोगरोधी किस्म बी एच- 393 जैसी किस्मों की बिजाई करें| रोग के नजर आते ही फसल पर डाईथेन एम- 45, 600 ग्राम प्रति एकड़ के हिसाब से एक से दो बार छिड़काव करें| लंबे फसल चक्र को अपनाएं|
बंद कांगियारी- यह बाली अवस्था का रोग है| रोगी बालियों में दानों की जगह गहरा भूरा या काला चूर्ण बन जाता है| यह चूर्ण पूर्णतया झिल्ली द्वारा ढ़का होता है| इसके फटने के बाद काला चूर्ण बाहर निकलता है, जो कि फसल निकालने के समय बीज पर चिपक जाता है तथा यही बीज अगले साल बीजा जाता है तो बिमारी आती है|
रोकथाम- रोगरोधी किस्म बी एच- 393 जैसी किस्मों का चुनाव करें|
खुली कांगियारी- जौ में यह बीमारी भी बाली अवस्था की है| रोगी बालियों में दाने की जगह काला चूर्ण बन जाता है, जो कि इस रोग के बीजाणु हैं| इसमें झिल्ली नहीं होती| इसलिए हवा द्वारा रोगी बालियों से उड़कर स्वस्थ बालियों पर पहुंच जाते हैं| रोगग्रस्त दाने ऊपर से स्वस्थ दिखाई देते हैं| अगले वर्ष जब ये दाने बीज के रूप में खेत में बोए जाते हैं, तो यह रोग दोबारा बालियों के बनते समय दिखाई देता है|
रोकथाम- रोगरहित बीज का प्रयोग करें, रोगी पौधों की बालियों को पोलीथीन लिफाफों से ढक कर, उखाड़ कर जला दें या मिट्टी में दबा दें| वीटावैक्स या बाविस्टिन 2 ग्राम प्रति किलो बीज की दर से सूखा उपचार करें|
यह भी पढ़ें- खरपतवारनाशी रसायनों के प्रयोग में सावधानियां एवं सतर्कता
यदि उपरोक्त जानकारी से हमारे प्रिय पाठक संतुष्ट है, तो लेख को अपने Social Media पर Like व Share जरुर करें और अन्य अच्छी जानकारियों के लिए आप हमारे साथ Social Media द्वारा Facebook Page को Like, Twitter व Google+ को Follow और YouTube Channel को Subscribe कर के जुड़ सकते है|
Leave a Reply