कायिक प्रवर्धन बीज के अतिरिक्त पौधे के अन्य किसी भाग और असंगजनिक भ्रूण से प्रवर्धन को अलैंगिक या कायिक प्रवर्धन कहते है| वर्तमान में बागवानी के लिए फल वृक्षों का प्रवर्धन मुख्यत कायिक विधियों द्वारा ही करने का प्रयास किया जा रहा है| इस लेख में आगे आप जानेगे की कायिक प्रवर्धन की प्रमुख व्यावसायिक और उपयोगी विधियां कौन कौन है, और उनकी प्रक्रिया क्या है| यदि आप कायिक प्रवर्धन के फायदे और और समस्याएं जानना चाहते है, तो यहां पढ़े- पौधों में जनन क्या है, जानिए इसके प्रकार, फायदे और समस्याएं
कायिक प्रवर्धन की उपयोगी विधियां
कलम से प्रवर्धन-
कायिक प्रवर्धन की इस विधि द्वारा जब पौधे के किसी भाग को मातृ पौधे से अलग करके, इस प्रकार उपचारित किया जाए कि पौधे प्रवर्धित हो सकें और अपना अलग अस्तित्व कायम रख सकें, इसे कलम से प्रवर्धन कहते हैं|
शाखाओं की परिपक्वता और पोषण परिस्थितियाँ- मातृ पौधे से कलम प्राप्त करते समय उनकी परिपक्वता तथा पोषण परिस्थितियों का मूलन पर विशेष प्रभाव पड़ता है| कायिक प्रवर्धन की यह विधि काब्रोज विशेषकर स्टार्च की अधिकता और नाइट्रोजन समकक्ष रसायनों की कम आपेक्षिक सान्द्रता मूलन को प्रोत्साहित करती हैं| कच्ची शाखा कलम में कार्बोज का संग्रहण कम होने के कारण मूलन की सम्भावना बहुत कम होती है| यही कारण है, कि तेजी से वृद्धि करती जलांकुरों को कलम के रूप में प्रयोग करने का अनुमोदन नहीं किया जाता है|
किशोरावस्था- किशोरावस्था अवस्था जब किसी पौधे में ओजस्वी वृद्धि हो रही हो, फूल आने की क्षमता न हो और विशेष आकार की पत्तियाँ, तने और काँटे विद्यमान हो, उसे किशोरावस्था कहते हैं| अलग-अलग पौधों में इस अवस्था की अवधि भिन्न प्रकार की होती है| कठिनाई से मूलन वाले पौधों में किशोरावस्था से प्राप्त कलमों से ही मूलन की सम्भावना होती है|
जैसे-जैसे पौधे की आयू बढ़ती जाती है, उनमें शारीरिक और जीव रासायनिक परिवर्तन के कारण मूलन की क्षमता कम होती जाती है| पौंधो के आकार के (मारफोलोजिकल) गुण जैसे- पत्तियों के रूप और आकार, काँटे इत्यादि में विशेष परिवर्तन हो जाते है|
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गहरी काट छांट- अनार, खेजड़ी के पुराने वृक्ष जिनमें फलन प्रारम्भ हो गया हो, की गहरी छंटाई के बाद प्राप्त शाखाऐं ओजस्वी होती है, तथा उनमें किशोरावस्था के गुण विद्यमान होने के कारण अच्छी मूलन की सम्भावना होती है| इसलिए मूलवृंतो की गहरी छंटाई करने और निरन्तर निष्कलिकायन (डिसबडिंग) करते रहने से भी किशोरावस्था की वृद्धि प्राप्त होती रहती है|
वलयन- जैसा की पहले स्पष्ट किया गया है, कि कार्बोज समकक्ष पदार्थों की अधिकता मूलन में सहायक होती है, इसलिए ऐसी विधि जिससे कार्बोज और अन्य पदार्थों का स्थानान्तरण रूक जाए, मूलन में सहायक हो सकती है| नई शाखाओं से जिनमें कलमें ली जानी हो, इसके आधार पर 2 से 3 सेंटीमीटर चौड़ी छाल वलय की तरह हटा देने पर प्राय फ्लोएम ऊतक नष्ट हो जाते हैं, साथ ही वलयन की गई कलमों में प्रोटीन निर्माण में वृद्धि होने का भी अनुमोदन किया गया है|
कायिक प्रवर्धन की इस विधि में परिणाम स्वरूप न्यूक्लिीइक अम्ल, राइबोन्यूक्लीइक अम्ल, डिऑक्सीराइबोन्यूक्लिीइक अम्ल की अधिक आपेक्षिक सान्द्रता मूलन में सहायक होती है| ऐसी कलमों को उचित दशाओं में रोपण करने पर मूलन सम्भावित होता है|
शाखा के किस भाग से कलम ली गई- कभी-कभी कलम के लिए शाखा की लम्बाई अधिक होने के कारण उनसे आवश्यकतानुसार 2 से 5 तक कलमें बना ली जाती है| सामान्यतः ऐसी कलमों के मूलन क्षमता में स्पष्ट अन्तर होता है, आधार वाले भाग में अच्छी मूलन और ऊपरी भाग से प्राप्त कलमों से क्रमशः मूलन क्षमता में हृास होने लगता है|
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मूलन के समय वातावरण की परिस्थितियाँ-
नमी- यह तो निश्चित हो गया है, कि कलमों में विद्यमान पत्तियाँ और कलिकायें मूलन में सहायक होती है| परन्तु इनके बने रहने से कभी-कभी नमी इतनी अधिक वाष्पीकृत हो जाती ,है कि मूलोत्पति के पहले ही कलम के सूख जाने की आशंका रहती है, सुगमतापूर्वक मूलन वाली कलम में शीघ्र ही पानी का अवशोषण शुरू हो जाता है|
कायिक प्रवर्धन की इस विधि में देर से मूलन वाली कलम में वाष्पोत्सर्जन प्रक्रिया की दर धीमी करना आवश्यक होता है, इसे पत्तियों की थोड़ी संख्या कम करके और कलम के आस-पास नमी बढ़ाकर की जा सकती है| वर्तमान में इसके लिए कुहासे (मिस्ट) का प्रयोग बढ़ता जा रहा है|
कुहासे (मिस्ट) का प्रयोग- कुहासे के प्रयोग से कलम में विद्यमान पत्तियों के आस-पास वातावरण के बराबर नमी बनी रहती है| नमी में समानता होने के कारण वाष्पोत्सर्जन और श्वसन प्रक्रिया धीमी हो जाती है, साथ ही साथ प्रकाश की उपलब्धता के कारण प्रकाश संश्लेषण प्रक्रिया सामान्य चलती रहती है|
इस प्रकार पत्तियों द्वारा निर्मित भोज्य और मूलन सहकारक रसायन मूलोत्पत्ति में सहायक होते है| कुहासे की सहयता से पानी के छिड़काव के साथ-साथ पोषण तत्व जैसे- नाइट्रोजन, बोरान आदि और कीट व रोग नाशक रसायनों का छिड़काव भी किया जा सकता है|
प्रकाश- पत्तियों युक्त कलम में प्रकाश संशलेषण द्वारा निर्मित भोज्य एवं अन्य पदार्थ मूलोत्पत्ति प्रोत्साहित करने में सहायक होते है| इसलिए प्रकाश अवधि और तीव्रता का सीधा सम्बन्ध मूलोत्पादन से होता है| पर्ण पाती सूख काष्ठ कलम जिनमें भोज्य पदार्थ पर्याप्त मात्रा में संग्रहित होते हैं, उनमें अपने आप अच्छे मूलन की सम्भावना रहती है| परन्तु हरित शाख कलम में कार्बोज, ऑक्जिन और अन्य पदार्थों की कमी होने के कारण अधिक प्रकाश अवधि मूलन में सहायक होती है|
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कलम का उपचार-
वृद्धि नियन्त्रक रसायन- कलम का उपचारण वृद्धि नियन्त्रक रसायन जैसे इण्डोल ब्यूटाइरिक एसिड, नेप्थलीन एसिटिक एसिड आदि से किया जा सकता है| कभी-कभी दो रसायनों को एक साथ प्रयोग करने पर योगवाही प्रभाव पड़ने का भी अनुमोदन किया गया है| वृद्धि नियन्त्रक रसायन जैसे रूटोन ए, बी, रूटैक्स, सेराडेक्स आदि का उपयोग व्यवसायिक स्तर पर कलम को उपचारित करने के लिए किया जाता है| कलम के आधार भाग को इनमें से किसी एक रसायन में डुबोकर लगाने से अधिक सफलता मिलती है|
कवकनाशी उपचार- कलम का रोपण नमीयुक्त मूलन माध्यम में किया जाता है| इसलिए नमी की अधिकता होने पर विभिन्न प्रकार के कवकों के संक्रमण के कारण मूलन पर प्रतिकूल प्रभाव पड़ता है| यही कारण है, कि रोपण के पहले वृद्धि नियन्त्रक रसायनों के साथ-साथ कवकनाशी रसायनों का उपचार करना लाभप्रद होता है| कलमों के उपचार के लिए आमतौर पर कैप्टान, बेविस्टीन इत्यादि का प्रयोग किया जाता है|
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चश्मा (बडिंग) द्वारा प्रवर्धन
आपने जाना की कलम बंधन की विभिन्न विधियों में जहां सांकुर के रूप में चयन किये गये मातृवृक्ष की कई कलिकाओं वाली छोटी टहनी प्रयोग की जाती हैं, वहीं पर चश्मा की विभिन्न विधियों में सांकुर के लिए मातृ वृक्ष का छोटा भाग, जिसमें केवल एक वानस्पतिक कली, लकड़ी या बिना लकड़ी के साथ प्रयोग की जाती है| दोनों में मिलाप सिद्धान्त एक होने के कारण कभी-कभी इसे चश्मा कलम बंधन (बड ग्राफटिंग) के नाम से भी सम्बोधित किया जाता हैं|
चश्मा द्वारा प्रवर्धन ऐसे समय में किया जाता है, जब पौधों में सक्रिय वृद्धि होने के कारण रस का संचार होता रहता है| इस समय सांकुर शाखा में कलिका सुगमतापूर्वक निकल जाती है, व मूलवृंत पर भी स्थान बनाना आसान होता है| साथ ही साथ एकाध कोशिकाओं में विभाज्य ऊतक कोशा विभाजित होते रहने के कारण मिलाप की अच्छी सम्भावना होती है|
चश्मा की विभिन्न विधियों द्वारा प्रवर्धित पौधे आमतौर पर प्रारम्भ से ही मजबूत होते है एवं मातृ पौधे के कलम बंधन की अपेक्षा अधिक संख्या में पौधे प्रवर्धित किए जा सकते है| इसलिए यदि सीमित संख्या में सांकुर उपलब्ध हो,तो चश्मा द्वारा ही प्रवर्धन किया जाना चाहिए|
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चश्मा के लिए मूलवृत्त का चयन- कलम बंधन की तरह, चश्मा द्वारा प्रवर्धन के लिए मूलवृंत की आवश्यकता पड़ती है| फल-वृक्ष प्रवर्धन में देशी किस्म के बीजू या वानस्पतिक विधियों द्वारा प्रवर्धित मानक मूलवृत्तों का प्रयोग किया जाता है, मूलवृंत, प्रवर्धित पौधे की वृद्धि, नियन्त्रण के साथ-साथ भूमि और जलवायु के प्रति सहिष्णुता और कीट-व्याधि के प्रति अवरोधकता भी रखते हैं, जिनका समुचित उपयोग किया जाना चाहिए| जहा तक संभव हो सके मूलवृत्त व सांकुर कीट और व्याधिक के संक्रमण से मुक्त होने चाहिए|
वर्षा ऋतु में चश्मा चढ़ाना- इसके अन्तर्गत 15 जून से 15 सितम्बर तक का समय आता है| चश्मा की विभिन्न विधियों द्वारा प्रवर्धन का यह उत्तम समय होता है| इस समय तक मूलवृत्त में उचित वृद्धि हो जाती है एवं अभी रस का संचार होता रहता है, साथ ही साथ जब तक कलियों का पूर्ण विकास भी हो जाता है| यही कारण है, कि उष्ण फलों जैसे आंवला, बेर, बेल इत्यादि , चश्मा की विभिन्न विधियों द्वारा इस अवधि में प्रवर्धन किया जाता है|
कायिक प्रवर्धन की इस विधि में सांकुर को मातृवृक्ष से काटते ही थोड़ा पुर्णवृंत छोड़ते हुए सभी पत्तियाँ निकाल देनी चाहिए| सांकुर शाखा को भीगे कपड़े, टाट या नम मॉस घास के साथ ठण्डे स्थान पर कुछ समय तक भण्डारित भी रखा जा सकता है| लेकिन प्रयत्न करना चाहिए, कि यथाशीघ्र चश्मा चढ़ाने का कार्य पूर्ण हो जाए, सांकुर शाखा के आधार से मध्य तक की कलियाँ पूर्ण विकसित होती है, इसलिए इन्हीं को प्रत्यारोपण के लिए प्रयोग करना चाहिए|
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टी (ढाल) चश्मा
कायिक प्रवर्धन की अन्य विधियों की तुलना में चश्मा चढ़ाने की यह सबसे आसान विधि है, नाव के आकार की कलिका का, मूलवृंत पर भूमि से 10 से 25 सेंटीमीटर की ऊँचाई पर, जहाँ सतह समतल हो, प्रत्यारोपण किया जाता है| यदि मूलवृंत पर केवल सीधा चीरा लगाकर प्रत्यारोपण किया जाए तो इसे आई चश्मा के नाम से जाना जाता है|
कभी-कभी सुविधा हेतु मूलवृंत पर लगाये गये सीधी चीरे के ऊपर एक अनुप्रस्थ चीरा लगा दिया जाता है| इससे प्रत्यारोपण हेतु टी आकार का स्थान बन जाता है| इसी कारण इस विधि को टी चश्मा के नाम से भी जाना जाता है| लेकिन यही चीरा यदि नीचे की तरफ लगाया जाए तो उल्टा टी आकार बन जाता है| इसी कारण अंग्रेजी में इन्हें टी या इनवर्टेट टी बडिंग नाम से जाना जाता है|
कलम बांधना या ग्राटिंग
इस कलम बांधना या ग्राफटिंग विधि में एक संस्तुत प्रजाति की कोई पतली शाखा लगभग उसी मोटाई के किसी दूसरे पौधे पर बांध देते हैं| जिस पौधे पर शाखा बांधी जाती है, उसे मूलवृन्त कहते हैं एवं जो शाखा बांधी जाती है, उसे शाखवृन्त कहते है| बांधते समय यह ध्यान यह रखना चाहिए कि दोनों के बीच रिक्त स्थान नहीं छूटना चाहिए, नही तो शाखायें पूरी तरह से जुड़ नहीं पायेगी|
शाखवृन्त या शांकुर शाखा ऐसे वृक्ष से लेते है, जो फलन और फल के गुणों में श्रेष्ठ और स्वस्थ हो, विभिन्न फलों के कलम बांधने की अलग-अलग विधियाँ होती हैं, इन्हें दो भागों में बाटा जा सकता है, जो इस प्रकार है, जैसे-
1. कायिक प्रवर्धन की इस विधि, में जब मूलवृंत व सायन में जुडाव हो रहा हो तो शाखा पैतृक वृक्ष से पूर्णतः अलग नहीं की जाती, जैसे – भेट कलम, जिह्वा कलम, पल्यान कलम इत्यादि|
2. कायिक प्रवर्धन की इस विधि, में शाख को पैतृक वृक्ष से पूर्णतया अलग करने के पश्चात इसे मूलवृत्त पर कलम किया जाता है, जैसे- विनियर कलम, स्फान कलम, पाश्र्व कलम, वल्क या मुकुट कलम इत्यादि|
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कायिक प्रवर्धन करते समय ध्यान रखने योग्य बातें
1. कायिक प्रवर्धन के लिए शाख लेने वाले पौधे अच्छी किस्म, गुणवत्ता और अधिक पैदावार देने वाले होने चाहिए|
2. बडिंग करने का उचित समय जून से अगस्त तक है, इससे कोपलें भी अधिक मिलती हैं व आँखें लगाने पर अधिक सफल होती हैं, इसलिए समय का जरूर ध्यान रखना चाहिए|
3. मौसम को ध्यान रखकर वानस्पतिक प्रसारण का कार्य करें यानि की वर्षा न हो रही हो, मौसम साफ और वायु मण्डल में आर्द्रता होनी चाहिए|
4. कायिक प्रवर्धन विधियों के लिए साफ और तेज धार वाले यंत्र जैसे- आरी, चाकू एवं सिकटियर का प्रयोग करना चाहिए|
5. मूलवृन्त में चीरा लगाने के पश्चात छाल को ढीला करते समय बार-बार चाकू को छाल के भीतर नही रगड़ना चाहिए, ऐसा करने से अन्दर घाव हो जाता है व कोपल लगने में कम सफलता मिलती है|
6. कायिक प्रवर्धन में कोपल को छोड़कर बाकी सभी को प्लास्टिक की पट्टी से कस कर बाँध देना चाहिए|
7. कायिक प्रवर्धन के बाद कोपल की वृद्धि के पश्चात फालतू उगी हुई शाखाओं को काटते रहना चाहिए|
8. कायिक प्रवर्धन से नई-नई कोमल कोपलों पर हानिकारक कीड़ों का प्रभाव अधिक होता है, इसलिए कीटनाशक दवा का छिड़काव करना चाहिए|
9. कायिक प्रवर्धन के बाद आँख की बढवार के समय अगर वर्षा न हो रही हो तो हल्की सिंचाई अवश्य करते रहना चाहिए|
10. कायिक प्रवर्धन के बाद पौधशाला को गर्म हवा से बचाना चाहिए और समय-समय पर खरपतवार निकालते रहना चाहिए|
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