सतालू या आड़ू की खेती शीतोष्ण जलवायु की प्रमुख फसल है| भारत में आड़ू की खेती मुख्यत: उत्तरांचल, हिमाचल प्रदेश, जम्मू कश्मीर की ऊँची घाटियों और उत्तर भारत के मैदानी क्षेत्रों में सफलतापूर्वक की जा रही है| पर्वतीय क्षेत्रों में आड़ू की खेती बहुत पहले से की जा रही है, लेकिन वे पुराने बाग बीजू पौधों से लगाएं हुए है| जिससे बागवानों को उनसे अच्छी पैदावार प्राप्त नही होती है| लेकिन पर्वतीय क्षेत्र की घाटियों में इसका अच्छा उत्पादन होता है तथा हाल के वर्षो में दिये गये महत्व से आड़ू की फसल के क्षेत्रफल और उत्पादन की क्षमता में भी वृद्धि हुई है|
अब तो पर्वतीय क्षेत्र की घाटियों से इस फल का निर्यात भी विदेशों में किया जा रहा है जिससे किसानों को अच्छी आमदनी भी हो रही है| बागान बन्धुओं को आडू की खेती वैज्ञानिक तकनीक से करनी चाहिए| ताकि उनको इसकी फसल से अधिकतम और गुणवत्तायुक्त उत्पादन प्राप्त हो सके| इस लेख में आडू की बागवानी उन्नत तकनीक से कैसे करें की पूरी जानकारी का विवरण उपलब्ध है|
उपयुक्त जलवायु
आड़ू की खेती के लिए शीतोष्ण तथा समशीतोष्ण जलवायु उपयुक्त रहती है| लेकिन वे क्षेत्र जहाँ पर सर्दी में देर से पाला पड़ता है| इसके लिए उपयुक्त नहीं माने जाते है| आड़ू की खेती मध्य पर्वतीय क्षेत्र, घाटी तथा तराई और भावर क्षेत्रों के सबसे अनुकूल है| इस फसल को कुछ कुछ निश्चित समय के लिए 7 डिग्री सेल्सियस से भी कम तापमान की आवश्यकता होती है|
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भूमि का चुनाव
हल्की दोमट और बलुई दोमट मिट्टी आड़ू के पौधे विकास के लिए उत्तम होती है| मिट्टी का पीएच मान 5.5 से 6.5 तक होना चाहिए, साथ ही काफी जीवांशयुक्त होना आवश्यक है| जिस भूमि में इसकी खेती की जा रही हो वहाँ जल निकास का समुचित प्रबंध होना बहुत जरूरी है, अन्यथा पौधे जड़ सड़न रोग से प्रभावित हो सकते है|
उन्नत किस्में
आड़ू की खेती हेतु पर्वतीय क्षेत्रों, घाटियों और उससे लगे मैदानी क्षेत्रों में निम्न किस्मों को अच्छी प्रकार उगाया जा सकता है| इसके अलावा विदेश से आयातित किस्मों की भी खेती सफलतापुर्वक की जा सकती है, जो इस प्रकार है, जैसे-
अगेती किस्में- सनरेड, आर्म किंग, एफ.एल.ए. 16-33, फ्लोरडा किंग, फ्लोरडा सन, सहारनपुर प्रभात, पेरीग्रीन, एलेक्जेन्डर, अर्ली ह्नाइट जायन्ट, एल्टन, वर्ल्डस अलएस्ट, रैड हैवन, स्टार्क रैड गोल्ड, शरबती, शाने पंजाब और समरसैट आदि|
मध्यम समय- हाँलबर्टा जाँयन्ट, जे.एच.हेल, एलवर्टा, तोतापरी, (क्रोफोर्ड अर्ली) शान-ए-पंजाब, और फ्लोरडा रेड आदि|
पछेती किस्में- पैराडीलक्स, नेवलेस, रेडजून, जुलाई एलबर्टा और गोल्डन बुश आदि|
डिब्बाबंदी के लिए- एलबर्टा, हालफोर्ड, शान-ए-पंजाब, फार्चूना, क्रोफोर्ड अर्ली, विवान और वेटेरन आदि|
ताजे फल खाने के लिए- एलबर्टा, जे.एच.हेल, एलेक्जेन्डर, सहारनपुर, प्रभात, पैराडीलक्स और सन रेड आदि|
नैक्ट्रीन- आर्म किंग, सन रेड, वनस मिसरी स्नोक्वीन और सनक्रेस्ट आदि|
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मध्यवर्ती क्षेत्र की प्रमुख किस्में-
एलटन- फल मध्यम आकार का, गोलाकार, गूदा गुठली से चिपका हुआ, रंग बेरियम पीला, छिलका रोएंदार और थोड़ी खटास वाला, आड़ू की यह किस्म जून के तीसरे सप्ताह में पक कर तैयार हो जाती है|
वर्ल्डस अलएस्ट- फल छोटे से मध्यम आकार वाला, फल का बाहरी उभार स्पष्ट तथा फॉकों में बंटा हुआ, गूदा हल्के बादामी रंग का, रसीला, गुठली से चिपका हुआ, खटास वाला, आड़ू की यह किस्म जून के तीसरे सप्ताह में पक कर तैयार हो जाती है|
अर्ली व्हाइट जाएन्ट- फल मध्यम से बड़े आकार का, गूदा मीठा, जून के दूसरे सप्ताह में पककर तैयार, गूदा गुठली से आसानी से अलग होने वाला, आकर्षक और सुगन्धित फल होता है|
रैड हैवन- आड़ू की इस किस्म के फल मध्यम गोलाकार, पीले छिलके के ऊपर हल्के तथा गहरे लाल रंग से भरा हुआ, लुभावना, कठोर छिलका, कम रोएँदार, अच्छी गुणवत्ता वाला, गुठली के पास का भीतरी भाग कठोर, बड़ा और पकने पर गुठली गूदे से अलग होने वाली, एलबर्टा से 30 दिन पहले यानि जून में ही पक कर तैयार होने वाली आड़ू किस्म है|
स्टार्क रैड गोल्ड- फल मध्यम आकार का, छिलका पीला संगतरी कहीं कहीं से लाल, गूदा पीला, गुठली गूदे से मध्यम रूप से चिपकी हुई, जल्दी पकने वाली किस्म, मई के आखिरी सप्ताह में तैयार, पौधा बड़ा, ओजस्वी, फैलावदार और अधिक फलदायक होता है|
स्नोक्वीन (नैक्ट्रीन)- फल छोटे से मध्यम आकार के, चिकनी सफेद सतह पर चमकीला लाल रंग, गूदा सफेद, अच्छी सुगन्ध वाला व गुठली से चिपका हुआ, फल मध्य जून में पक कर तैयार, पौधा फैलावदार, ओजस्वी व अच्छी पैदावार देने वाला, 6,000 फुट तक की ऊँचाई वाले क्षेत्रों के लिए अनुमोदित किस्म है|
एलबर्टा- फल बड़े, गुठली आसानी से अलग होने वाली, छिलका मुलायम, हल्का पीला लाल, गूदा पीला, फल ठोस पीले, रसदार, मीठे उत्तम गुणवत्ता वाले होते है|
एलेक्जेन्डर- फल बडे गोल, गुठली आसानी से अलग होने वाली, छिलका हरापन लिए हुए सफेद सुर्ख लाल रंग के स्वादिष्ट रसदार, मीठे, सुगन्धित होते है|
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निचले पर्वतीय, घाटी और मैदानी क्षेत्रों की किस्में-
शरबती- फल मध्यम आकार का, गोल और लम्बूतरा, उभार वाला, हरा पीला रंग, गुठली गूदे से चिपकी हुई, फल अच्छी गुणवत्ता वाला, जून के अन्तिम सप्ताह में पक कर तैयार होने वाली आड़ू की किस्म है|
शाने पंजाब- फल मई के दूसरे सप्ताह में पक कर तैयार, 5 से 5.5 सैंटीमीटर व्यास वाला, मध्यम आकार का, लगभग 100 ग्राम वजन प्रति फल, गूदा पीला, गुठली गूदे से चिपकी हुई, उत्तम स्वाद तथा बढ़िया सुगन्ध, आड़ू की इस किस्म की उपज 125 किलोग्राम प्रति पेड़ होती है|
समरसैट- फल पीला- संतरी व लालिमा युक्त तथा मध्यम आकार का, गूदा संतरी पीला तथा गुठली से चिपका हुआ, पौधा बड़ा, मध्यम फैलाव वाला और मध्यम फसल देने वाला, जून के आखिरी सप्ताह में पक कर तैयार होने वाली आड़ू की किस्म है|
शर्बती- इस आड़ू के फल बड़े, रंग मक्खन की तरह, लाल आभायुक्त होते हैं, फल के पिछले भाग में धारी प्रमुखता से उठी, गूदा मक्खन की तरह सफेद रसदार, शर्बती रेड के फल छोटे और अधिकांश हिस्से में गहरे गुलाबी रंग के होते हैं|
सहारनपुर- शर्बती की तुलना में इसकी शीतलन की आवश्यकता और भी कम है, फल शर्बती सफेदा से बडे और एक सप्ताह पहले पक जाते हैं, फल का गूदा गुठली के पास हल्का कड़वापन लिए हुए, बीज में अच्छी अकुंरण क्षमता, बीजू पौधे एक समान बृद्धि करने वाले होने से मूलवृन्त के रुप में उपयोगी है|
सन रेड- फल छोटे, गूदा गुठली से हल्का चिपका हुआ सा, छिलका तेज लाल रंग का, गूदा पीला, ताजे खाने के लिए उत्तम गुणवत्ता वाला फल होता है|
फ्लोरडासन- फरवरी के प्रथम सप्ताह में पुष्पन, अप्रैल के आखरी सप्ताह में फल पकना शुरु, मई के प्रथम सप्ताह में फल पक कर तैयार, फलों का वजन 80 से 130 ग्राम होता है|
सहारनपुर प्रभात- शर्बती + फ्लोरडासन के संस्करण से चयनित किस्म, पेड़ की वृद्धि ऊर्ध्वगामी, तना और मुख्य शाखायें मजबूत, पुष्पन जनवरी के अंतिम सप्ताह में, फल मध्यम आकार के आकर्षक लाल आभायुक्त, गूदा सफेद, मीठा अच्छे स्वाद वाला, किसी भी किस्म की कड़वाहट से मुक्त, गुठली गूदे से अलग होने वाली, फल अप्रैल के अंतिम सप्ताह में पककर तैयार होते है|
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पौधे तैयार करना
आड़ू की अच्छी किस्मों के पौधे कलिकायन या कलम लगाकर (ग्राफ्टिग) तैयार किये जाते हैं, क्योंकि बीजू पौधों की गुणवत्ता मातृवृक्ष की तरह नही होती है| अतः पौधे तैयार करने के लिए नर्सरी में बीज बोकर, बीजू पौधे तैयार किये जाते हैं| एक वर्ष की आयु वाले बीजू पौधे पर पहाड़ी क्षेत्रों में कलिकायन जून माह में या टंग ग्राफिंटग फरवरी माह में बांधते हैं| मैदानी क्षेत्रों में कलिकायन अप्रैल माह में किया जाता है|
आड़ू के बीजू पेड़ अच्छे मूलवृन्त सावित हुए है| इसकी गुठलियों को 10 से 15 सप्ताह के लिये 5 से 10 डिग्री सेल्सियस तापमान पर भीगी रेत या मौस घास में रखकर इनका स्तरित (स्ट्रेटीफिकेशन) किया जाता हैं| इसके लिए नमी पर खास ध्यान देना होता है| डिब्बों में पड़े रेत और गुठलियों को खुष्क नहीं होना चाहिये, क्योंकि इस समय सूखने से बीजों की हानि होती है| गुठलियों को जिब्रेलिक अम्ल 500 पीपीएम से उपचारित कर बोने से जमाव अच्छा होता है|
माइरोबलान ‘ए’ तथा ‘बी’ को क्लोनल मूलवृन्त के रूप में प्रयोग किया जा सकता है, जिन्हें अधिक नमी तथा गहरी भूमि वाले प्रक्षेत्रों में लगाया जा सकता है| प्रवर्धन की अधिक जानकारी के लिए यहाँ पढ़ें- आड़ू का प्रवर्धन कैसे करें
पौध रोपण
जुताई- आड़ू की खेती या बागवानी के लिए खेत की पहली जुताई मिट्टी पलटने वाले हल से करने के बाद 2 से 3 जुताई आड़ी तिरछी देशी हल या अन्य यंत्र से करनी चाहिए, इसके बाद खेती को समतल बना लेना चाहिए|
फासला- आड़ू की खेती के लिए सामान्य रूप से बीजू मूलवृत पर तैयार किये गये पौधों के बीच 6 x 6 मीटर की दूरी रखी जाती है| ढलानदार क्षेत्रों में इसके पोधे छोटे-छोटे खेत बनाकर लगाए जाने चाहिए, परन्तु समतल घाटियों वाले क्षेत्रों में वर्गाकार, षट्कोणाकार, आयताकार विधि, आदि से पौधे लगाये जा सकते हैं|
पौधारोपण हेतु गड्ढे- रोपाई या बुआई से 15 से 20 दिन पहले 1 x 1 x 1 मीटर के गड्ढे खोद कर धूप में छोड़ दें| इसके बाद इन गड्ढों को 15 से 25 किलोग्राम गली सड़ी गोबर की खाद 125 ग्राम नाइट्रोजन, 50 ग्राम फास्फोरस, 100 पोटाश और 25 मिलीलीटर क्लोरपाइरीफॉस के मिश्रण के साथ इन गड्ढों को भरने के बाद ऊपर से सिंचाई कर दें, ताकि मिट्टी दबकर ठोस हो जाए| अब पौधे गड्ढों के बीच में लगाएं|
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खाद और उर्वरक
आड़ू की खेती या बागवानी में जब वृक्ष 1 से 2 वर्ष का होता है, तो अच्छी तरह से गली हुई गोबर की खाद 10 से 15 किलोग्राम, यूरिया 150 से 200 ग्राम, एसएसपी 200 से 300 ग्राम, और म्यूरेट ऑफ पोटाश 150 से 300 ग्राम प्रति वृक्ष डालें| जब वृक्ष 3 से 4 वर्ष का होता है, तो अच्छी तरह से गली हुई गोबर की खाद 20 से 25 किलोग्राम, यूरिया 500 से 700 ग्राम, एसएसपी 500 से 700 ग्राम, और म्यूरेट ऑफ पोटाश 400 से 600 ग्राम प्रति वृक्ष डालें और जब वृक्ष 5 वर्ष या इससे ज्यादा उम्र का होता है, तो अच्छी तरह से गली हुई गोबर की खाद 25-35 किलोग्राम, यूरिया 1000 ग्राम, एसएसपी 1000 ग्राम और म्यूरेट ऑफ पोटाश 800 ग्राम प्रति वृक्ष डालें|
सिंचाई प्रबंधन
आड़ू के पौधे पर नये पत्ते निकलने और फलने से पहले भूमि में पर्याप्त नमी होनी चाहिये| अतः अंकुरण के 7 से10 दिन पूर्व बाग में अच्छी तरह सिंचाई कर देनी चाहिए| भूमि में सिंचाई के समय न पानी अधिक लगना चाहिये और न कम अर्थात सिंचाई प्रक्रिया में विशेष सावधानी रखनी चाहिए| जब बाग में फल वृद्धि पर हों, तो आवश्यकतानुसार जल्दी-जल्दी सिंचाई करनी चाहिए| फसल पकने के कुछ दिन पूर्व सिंचाई बन्द कर देनी चाहिये, इससे फल कुछ दिन पूर्व पक जाते हैं| वर्षा के अभाव में सिंचाई पर विशेष ध्यान देना चाहिये, ताकि पौधे पर सूखे का प्रभाव न पड़े|
खरपतवार और अंतर फसलें
खरपतवार- आड़ू के बाग को निराई गुड़ाई कर के खरपतवार मुक्त रखें, यदि खरपतवार अत्यधिक मात्रा में है, तो खरपतवारनाशी का भी प्रयोग कर सकते है|
अंतर फसलें- जब तक आड़ू के बाग़ में फलत नही होती है, किसान भाई दलहनी, तिलहनी और सब्जियों की फसले उगा सकते है|
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कीट रोकथाम
चेपा- आड़ू की खेती में यह कीट आमतौर पर मार्च से मई के महीने में सक्रिय होता है| इस कीट के कारण पत्ते मुड़ जाते हैं और पीले होकर गिर जाते हैं|
रोकथाम- रोगोर 30 ईसी 800 मिलीलीटर को 400 से 500 लीटर पानी में मिलाकर प्रति एकड़ में छिड़काव करें| यदि जरूरत हो तो 15 दिनों के बाद दोबारा छिडकाव करें|
काला चेपा- यह कीट इस खेती में अप्रैल से जून महीने में सक्रिय होता है।
रोकथाम- मैलाथियोन 50 ईसी 800 मिलीलीटर को 400 से 500 लीटर पानी में मिलाकर छिड़काव करें|
छेदक कीट- यह एक खतरनाक कीट है, जो कि मध्य मार्च में सक्रिय होता है| ये हरे पत्तों को खाता है|
रोकथाम- डरमेट 20 ईसी 1 लिटर को 400 से 500 लीटर पानी में मिलाकर फल तुड़ाई के बाद जून के महीने में छिड़काव करें|
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रोग रोकथाम
छोटे धब्बे- पत्तों पर गहरे भूरे रंग के धब्बे पड़ जाते हैं|
रोकथाम- पत्तों के गिरने या कलियों के सूखने के समय ज़ीरम या थीरम 0.2 प्रतिशत का छिड़काव करें|
बैक्टीरियल और गोंदिया- यह रोग मुख्य तने, टहनी, शाखाओं, कलियों, पत्तों और यहां तक कि फलों को भी नुकसान है|
रोकथाम- इस के लिए सुनिश्चित करें कि आड़ू की उपयुक्त किस्म हो और जड़ का भाग भूगौलिक स्थान और पर्यावरण की स्थितियों के आधार पर लिया गया हो| फूल खिलने से पहले वृक्षों पर कॉपर का छिड़काव करें| संक्रमण को कम करने के लिए अगेती गर्मियों में वृक्षों की सिधाई करें|
जड़ सड़न- यह रोग मुख्यतः जल निकास की समुचित व्यवस्था न होने के कारण होता है|
रोकथाम- मैदानी भागों में जल निकास की समुचित व्यवस्था करें|
गमोसिस- यह रोग वैक्टीरिया द्वारा या कॉपर तत्व की कमी से होता है|
रोकथाम- रोगजनित भाग को छीलकर अगल कर लें और चौबटिया पेस्ट लगाये| पतछड़ और बसंत ऋतु में एक एक छिड़काव बोर्डोमिश्रण का करें|
फल तुड़ाई और पैदावार
फल तुड़ाई- अप्रैल से मई का महीना आड़ू की फसल के लिए मुख्य फल तुड़ाई का समय होता है| इनका बढ़िया रंग और नरम गुद्दा पकने के लक्षण है| आड़ू की तुड़ाई वृक्ष को हिला कर की जाती है|
उपज- आड़ू की खेती के अनुसार सामान्य परिस्थितियों में प्रति हेक्टेयर 90 से 150 क्विंटल तक आड़ू की उपज मिल जाती है|
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