आज का आधुनिक दौर, जिसको मशीनीकरण का दौर कहा जाता है, यदि मशीनों का उपयोग कर अंतरवर्ती फसल उत्पादन को अपनाया जाये तो निश्चित तौर पर कम लागत में अधिक लाभ अर्जित किया जा सकता है| खेती में जिस प्रकार दिन-प्रतिदिन बढ़ती लागत को लेकर किसान परेशान हैं| उसको देखते हुये यदि उपलब्ध संसाधनों में अंतरवर्ती फसल उत्पादन प्रणाली को अपनाया जाये तो एकल फसल पद्धति की अपेक्षा प्रति इकाई क्षेत्रफल में अधिक लाभ प्राप्त किया जा सकता है|
हमारे देश की लगातार बढ़ती जनसंख्या के कारण जोत का आकार छोटा होता जा रहा है| इसके अतिरिक्त खेती योग्य भूमि का लगातार जिस प्रकार दोहन हो रहा है उससे खेत की उर्वराशक्ति का ह्रास हो रहा है, साथ ही प्रति इकाई उत्पादन भी घट रहा है| एकल फसल पद्धति की अपेक्षा अंतरवर्ती फसल पद्धति से मृदा स्वास्थ्य को भी बनाये रखने में मदद मिलेगी| अंतरवर्ती फसल उत्पादन से किसान चाहे तो वर्ष भर आवश्यकतानुसार आमदनी प्राप्त कर सकता है|
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इससे किसान को प्रतिदिन की आवश्यकताओं को पूरा करने में मदद मिल सकती है| हमारे देश में किसानों के द्वारा मिश्रित फसल पद्धति प्राचीनकाल से अपनाई जा रही है| परन्तु इसके अतिरिक्त कोई वैज्ञानिक पद्धति नहीं होने के कारण सफलता नहीं मिली है, जितनी किसान को आवश्यकता है| अब समय आ गया है, कि अंतरवर्ती फसल उत्पादन को वैज्ञानिक पद्धति के रूप में अपनाकर लाभ लिया जाए| इस पद्धति को अपनाने के निम्नलिखित लाभ हैं, जैसे-
1. अंतरवर्ती फसल उत्पादन को अपनाने से एक साथ एक ही खेत में, एक ही मौसम में एवं एक ही समय में दो या दो से अधिक फसलों का एक साथ उत्पादन किया जा सकता है| इससे कम लागत प्रति इकाई अधिक उत्पादन प्राप्त कर आमदनी को बढ़ाया जा सकता है|
2. मृदा से नमी, पोषक तत्व, प्रकाश एवं खाली स्थान का समुचित उपयोग किया जा सकता है|
3. इस फसल पद्धति में धान्य फसलों के साथ दलहनी फसलों को उगाकर मृदा स्वास्थ्य को बनाये रख सकते हैं|
4. इसमें एक सीधी तो दूसरी फैलने वाली फसल लगाने के कारण खरपतवारों का नियंत्रण स्वतः हो जाता है|
5. तेज वर्षा एवं तेज हवाओं के कारण होने वाले मृदा अपरदन को भी अंतरवर्ती फसल उत्पादन को अपनाकर रोका जा सकता है|
6. अंतरवर्ती फसल उत्पादन को अपनाने से श्रम, पूंजी, पानी, उर्वरक इत्यादि को बचाकर लागत को कम किया जा सकता है|
7. तेज हवा, तेज वर्षा, अन्य प्राकृतिक प्रकोप एवं जंगली जानवरों के द्वारा फसलों की सुरक्षा करना आसान है, क्योंकि कुछ फसलों को सुरक्षा फसल के रूप में उगाया जा सकता है|
8. फसलों को रोग एवं कीटों से भी बचाया जा सकता है| जैसे- वैज्ञानिकों के द्वारा शोध में पाया गया है| चने की फसल में धनिया को अंतर्वर्ती फसल के रूप में उगाने से चने में कीटों का प्रकोप कम होता है|
9. अंतरवर्ती फसल उत्पादन से किसान वर्ष में कई बार आमदनी प्राप्त कर सकता है|
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खरीफ में अंतर्वर्ती फसलें
वर्षा ऋतु में मुख्य तौर पर अरहर, मूंगफली, तिल, मक्का, बाजरा एवं सोयाबीन इत्यादि फसलों को मुख्य तौर पर उगाया जाता है| परंतु किसानों द्वारा इन फसलों को एकल फसल पद्धति में लगाने के कारण शुद्ध लाभ कम प्राप्त होता है और लागत अधिक आती है| इन फसलों को निम्न प्रकार से लगाया जाये ताकि अधिक लाभ प्राप्त किया जा सके, जैसे-
अरहर+सोयाबीन (1:1)-
अरहर व सोयाबीन को अंतरवर्ती फसल उत्पादन में लगाने के लिए एक कतार अरहर की लगाई जाये| उसके बाद दूसरी कतार सोयाबीन की फिर एक कतार अरहर की व दूसरी कतार सोयाबीन की लगाई जाये तो अधिक उत्पादन प्राप्त किया जा सकता है|
अरहर+तिल (1:2)-
अरहर व तिल को अंतरवर्ती फसल उत्पादन में लगाने के लिए पहले एक कतार अरहर उसके बाद दो कतार तिल फिर एक कतार अरहर उसके बाद दो कतार तिल की लगानी चाहिए|
अरहर+गफली (1:6)-
अरहर व मूंगफली को अंतरवर्ती पद्धति से लगाने के लिए पहले अरहर की एक कतार उसके बाद छः कतार मूंगफली की फिर एक कतार अरहर उसके बाद छ: कतार मूंगफली की लगानी चाहिए|
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सोयाबीन+मक्का (1:1)-
अरहर व मक्का को अंतरवर्ती पद्धति से लगाने के लिए पहले अरहर की एक कतार उसके बाद एक कतार मक्का की, फिर एक कतार अरहर उसके बाद एक कतार मक्का की लगानी चाहिए|
अरहर+मक्का (1:2)-
अरहर व मक्का को अंतरवर्ती पद्धति से लगाने के लिए पहले अरहर की एक कतार उसके बाद दो कतार मक्का की, फिर एक कतार अरहर उसके बाद दो कतार मक्का की लगानी चाहिए|
मूंगफली+बाजरा (4:1)-
मूंगफली व बाजरा को अंतरवर्ती पद्धति से लगाने के लिए पहले मूंगफली की चार कतार उसके बाद एक कतार बाजरा की, फिर चार कतार मूंगफली उसके बाद एक कतार बाजरा की लगानी चाहिए|
मूंगफली+तिल (4:1)-
मूंगफली व तिल को अंतरवर्ती पद्धति से लगाने के लिए पहले मूंगफली की चार कतार उसके बाद एक कतार तिल की, फिर चार कतार मूंगफली उसके बाद एक कतार तिल की लगानी चाहिए|
मूंग+तिल (1:1)-
मूंग व तिल को अंतरवर्ती पद्धति से लगाने के लिए पहले मूंग की एक कतार उसके बाद एक कतार तिल की, फिर एक कतार मूंग उसके बाद एक कतार, तिल की लगानी चाहिए|
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शरद ऋतु में अंतर्वर्ती फसलें
शरद ऋतु में सरसों, गेहूं, चना, अलसी, आलू एवं कुसुम इत्यादि फसलों को मुख्य तौर पर उगाया जाता है| इन फसलों को निम्न प्रकार से लगाया जाये ताकि अधिक लाभ प्राप्त किया जा सके, जैसे-
सरसों+गेहूं (1:9)-
सरसों व गेहूं को अंतर्वर्ती पद्धति से लगाने के लिए पहले सरसों की एक कतार उसके बाद नौ कतार गेहं की, फिर एक कतार सरसों उसके बाद नौ कतार गेहूं की लगानी चाहिए|
सरसों+चना ( 1:3 या 1:4)-
सरसों व चना को अंतरवर्ती पद्धति से लगाने के लिए पहले सरसों की एक कतार उसके बाद तीन या चार कतार चना की, फिर एक कतार सरसों उसके बाद तीन या चार कतार चना की लगानी चाहिए|
सरसों+आलू (1:3)-
सरसों व आलू को अंतर्वर्ती पद्धति से लगाने के लिए पहले सरसों की एक कतार उसके बाद तीन कतार आलू की, फिर एक कतार सरसों उसके बाद तीन कतार आलू की लगानी चाहिए|
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आलू+मक्का (1:1 या 1:2)
आलू व मक्का को अंतरवर्ती पद्धति के अंतर्गत लगाने के लिए पहले आलू की एक कतार उसके बाद एक या दो कतार मक्का की, फिर एक कतार आलू उसके बाद एक या दो कतार मक्का की लगानी चाहिए|
अलसी+चना ( 1:3 या 1:4)
अलसी व चना को अंतरवर्ती पद्धति से लगाने के लिए पहले अलसी की एक कतार उसके बाद तीन या चार कतार चना की फिर एक कतार अलसी उसके बाद तीन या चार कतार चना की लगानी चाहिए|
अलसी+आलू (3:3 या 1:3)
अलसी व आलू को अंतरवर्ती पद्धति से लगाने के लिए पहले अलसी की तीन या एक कतार उसके बाद तीन कतार आलू की फिर तीन या एक कतार अलसी उसके बाद तीन कतार चना की लगानी चाहिए|
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आज के परिप्रेक्ष्य में धारणा
अंतर्वर्ती फसलों की उत्पादन की सीमाएं भी हैं| इन सीमाओं को देखते हुए आज के आधुनिक युग में वैज्ञानिकों द्वारा कई उपयोगी तकनीकें विकसित कर ली गई हैं| जैसे- अनेक फसलों में ऐसी प्रजातियों का विकास किया जा चुका है, जिनमें कीट एवं रोगों का प्रकोप नहीं होता है| अनेक प्रकार के छोटे से लेकर बड़े आधुनिक यंत्रों का विकास किया जा चुका है|
इनका अंतर्वर्ती फसलोत्पादन की सफलता में अहम योगदान है; कीट, रोग एवं खरपतवारों का पहले की अपेक्षा वर्तमान परिप्रेक्ष्य में आसानी से नियंत्रण किया जा सकता है| इस प्रकार खेती में बढ़ती लागत एवं मृदा के स्वास्थ्य को ध्यान में रखकर अंतर्वर्ती फसलोत्पादन हमारे किसानों के लिए एक अच्छा सौदा हो सकता है|
अंतरवर्ती फसल उत्पादन के सिद्धांत
1. अंतरवर्ती फसल उत्पादन में उगाई जाने वाली फसलों का एक-दूसरे पर सहायक प्रभाव हो न कि प्रतियोगितात्मक|
2. सहायक फसल, मुख्य फसल की तुलना में कम अवधि में तेजी से वृद्धि करने वाली होनी चाहिए ताकि मुख्य फसल की प्रारंभिक धीमी वृद्धि काल का उपयोग किया जा सके|
3. सहायक फसल उस समय तक पक जानी चाहिए जब तक कि मुख्य फसल का वृद्धि काल आरंभ हो सहायक फसल की कृषि क्रियाएं मुख्य फसल के समान होनी चाहिए|
4. अंतरवर्ती फसल उत्पादन में एक फसल सीधी बढ़ने वाली, जबकि दूसरी फसल फैलकर वृद्धि करने वाली होनी चाहिए, जैसे- मक्का के साथ उड़द, मूंग, सोयाबीन, लोबिया, मूंगफली इत्यादि फसलों को उगाया जा सकता है| ताकि मृदा कटाव के साथ-साथ मृदा की सतह से नमी का वाष्पीकरण भी रोका जा सके|
5. इस फसल पद्धति में उगाई जाने वाली फसलों में से एक फसल कम गहराई से तो दूसरी फसल अधिक गहराई से पोषक तत्व लेने वाली होनी चाहिए, ताकि मृदा पर स्वास्थ्य रोग प्रतिकूल प्रभाव नहीं हो, जैसे-अरहर+मक्का या ज्वार या बाजरा|
6. अंतरवर्ती फसल उत्पादन में मुख्य फसल के पौधों की संख्या इष्टतम होनी चाहिए| जबकि सहायक फसल के पौधों की संख्या आवश्यकतानुसार होनी चाहिए|
7. मुख्य एवं सहायक फसल में रोग एवं कीट एक समान नहीं होने चाहिए|
8. मुख्य एवं सहायक फसलों में पोषक तत्व ग्रहण करने की क्षमता अलग-अलग होनी चाहिए|
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