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Home » मटर के प्रमुख रोग एवं कीट और उनकी जैविक रोकथाम कैसे करें

मटर के प्रमुख रोग एवं कीट और उनकी जैविक रोकथाम कैसे करें

April 28, 2019 by Bhupender Choudhary Leave a Comment

मटर के प्रमुख रोग एवं कीट और उनकी जैविक रोकथाम कैसे करें

मटर रबी फसलों में एक महत्वपूर्ण स्थान रखता है| मटर की फसल के प्रमुख रोग एवं कीट की रोकथाम आवश्यक है| जिससे की उत्पादकों को इसकी फसल से इच्छित उपज प्राप्त हो सके मटर के रोगों में पाउडरी मिल्ड्यू, एसकोकाईटा ब्लाईट, फ्यूजेरियम विल्ट, सफेद विगलन, डाउनी मिल्ड्यू, रस्ट, जीवाणु अंगमारी, मौजेक और अगेता भूरापन आदि प्रमुख है और वही कीटों में लीफ माइनर और फली बेधक प्रमुख है| इस लेख में मटर के प्रमुख रोग एवं कीट और उनकी जैविक रोकथाम कैसे करें का विस्तृत उल्लेख किया गया है| मटर की जैविक खेती की पूरी जानकारी यहाँ पढ़ें- मटर की जैविक खेती कैसे करें

मटर फसल के रोगों का जैविक प्रबंधन

पाउडरी मिल्ड्यू- इस मटर फसल रोग के लक्षण पहले पत्तियों पर तथा बाद में पौधे के अन्य भागों में तने व फलियों पर सफेद चूर्ण वाले धब्बे के रूप में दिखाई देते हैं| बाद में यह धब्बे आपस में मिल जाते हैं और सभी हरे भाग सफेद चूर्ण से ढक जाते हैं| दूर से फसल ऐसे दिखाई देती है| जैसे आटे का छिड़काव किया गया हो, रोगग्रस्त फलियां आकार में छोटी और सिकुड़ी हुई होती हैं तथा बाद में फलियों के धब्बों का रंग भूरा हो जाता है|

रोकथाम-

1. रोगग्रस्त पौधों के अवशेषों को इकट्ठा करके जला दें|

2. रोग प्रतिरोधी किस्में लगायें|

3. फसल पर रोग के लक्षण दिखाई देने से पहले लहसुन की गठियों के द्रव्य (2 प्रतिशत) का छिड़काव 7 दिन के अंतराल पर करें|

4. दूध में हींग मिलाकर (5 ग्राम प्रति लीटर पानी) का छिड़काव करें|

5. चूर्ण आसिता बीमारी के नियंत्रण के लिए 2 किलोग्राम हल्दी का चूर्ण और 8 किलोग्राम लकड़ी की राख का मिश्रण बनाकर पत्तों के ऊपर डालें|

6. अदरक के चूर्ण को 20 ग्राम प्रति लीटर पानी में डालकर घोल बनाएं और 15 दिन के अंतराल पर तीन बार छिड़कने से चूर्ण आसिता तथा अन्य फफूंद वाली बीमारियों का प्रकोप कम होता है|

यह भी पढ़ें- ईसबगोल में कीट एवं रोग और उनकी जैविक रोकथाम कैसे करें

एस्कोकाईटा ब्लाईट- इस मटर के रोग से प्रभावित पौधे मुरझा जाते हैं| जड़े भूरी हो जाती हैं| पत्तों तथा तनों पर भूरे धब्बे पड़ जाते हैं| इस बीमारी से फसल कमजोर हो जाती है|

रोकथाम-

1. बीज का उपचार बीज अमृत व पंचगव्य से करें|

2. बीमारी के आने पर गौमूत्र तथा लस्सी का 10 दिन के अंतराल पर छिड़काव करें|

3. मोटे एवं स्वस्थ बीज का प्रयोग करें|

4. रोग ग्रसित पौधों को नष्ट कर दें|

5. हल्की सिंचाई दें व जल निकासी का उचित प्रबन्ध करें|

फ्युजेरियम विल्ट- इस मटर के रोग से ग्रस्त पौधों की निचली पत्तियां पीली पड़ जाती हैं और पौधे बौने हो जाते हैं| पत्तियों के किनारे अंदर को मुड़ जाते हैं तथा पौधों का ऊपर का भाग मुरझा जाता है और पौधे मर जाते हैं|

रोकथाम-

1. अधिक संक्रमित क्षेत्रों में अगेती बुआई न करें|

2. संक्रमित क्षेत्रों में तीन वर्षीय फसल चक्र अपनाएं|

3. स्वस्थ बीज का प्रयोग करें|

4. बीमारी वाले खेत में केंचुआ खाद तथा सीपीपी को डालें|

5. खादें संतुलित मात्रा में भूमि परीक्षण के आधार पर प्रयोग में लाएं|

6. खेती की भूमि का गर्मियों में 45 दिन के लिए सौर ऊर्जा से उपचार करें|

यह भी पढ़ें- लहसुन की जैविक खेती कैसे करें, जानिए किस्में, देखभाल और पैदावार

सफेद विगलन- इस मटर के रोग के लक्षण पौधे के किसी भी ऊपरी भाग पर सूखे बदरंग धब्बे के रूप में दिखाई देते हैं, जो ज्यादातर तने तथा शाखाओं पर अधिक होते हैं| फलियों का गुद्दा सड़ने लगता है और विभिन्न नाप व आकार की काली टिक्कियां बन जाती हैं|

रोकथाम-

1. रोग ग्रस्त पौधों के अवशेषों को इकट्ठा करके नष्ट कर दें|

2. फसल चक्र धान से अपनाएं|

3. पंक्तियों का फासला 50 से 60 सेंटीमीटर रखें|

4. खेत तैयार करते समय ट्राइकोडर्मा हरजियानम फफूंद 120 किलोग्राम प्रति हेक्टेयर के हिसाब से मिटटी में मिलायें|

डाऊनी मिल्ड्यू- इस रोग से ग्रस्त पत्तों की ऊपर सतह पर पीले से भूरे रंग के धब्बे बन जाते हैं और नमी वाले मौसम में पत्तों की निचली सतह पर इन धब्बों पर बैंगनी रंग की मृदुलरोमिल आसिता वृद्धि देखी जा सकती है| फलियों पर भी पीले से भूरे रंग के अंडाकार धब्बे बन जाते हैं| फलियों में पनप रहे बीज पर भी छोटे एवं भूरे रंग के धब्बे बन जाते हैं|

रोकथाम-

1. फसल के रोगग्रस्त अवशेषों को इकट्ठा करके नष्ट कर दें|

2. तीन वर्ष का फसल चक्र अपनाएं|

3. रोगमुक्त बीज का चयन करें|

4. खेत में पानी की निकासी का उचित प्रबंध करें|

5. बीज को बोने से पहले ट्राइकोडर्मा और बीजामृत से उपचारित करें|

यह भी पढ़ें- खीरे की जैविक खेती कैसे करें, जानिए किस्में, देखभाल और पैदावार

किट्ट (रस्ट)- इस मटर फसल रोग के सर्वप्रथम लक्षण पत्तियों, तनों और कभी-कभी फलियों पर पीले, गोल या लंबे धब्बे समूह के रूप में दिखाई देते हैं| इसको इशियमी अवस्था कहते हैं| इसके बाद यूरीडोस्फोट पौधों के सभी भाग या पत्तियों के दोनों सतहों पर बनते हैं|

वे चूर्णी और हल्के भूरे रंग के होते हैं| बाद में इन्हीं धब्बों का रंग गहरा भूरा या काला हो जाता है, जिसे टिलियम अवस्था कहते हैं| रोग का प्रकोप 17 से 22 डिग्री सेंटीग्रेट तापमान व अधिक नमी तथा ओस व बार-बार हल्की बारिश होने से अधिक बढ़ता है|

रोकथाम-

1. रोगग्रस्त अवशेषों को नष्ट कर दें|

2. लंबा फसल चक्र अपनाएं और रोग परपोषी फसलें न लगाएं|

3. जिन क्षेत्रों में इस रोग का अधिक प्रकोप होता है उनमें फसल का जल्द रोपण करें|

4. रोगरोधी किस्मे ही उगाएँ|

जीवाणु अंगमारी- इस मटर फसल रोग के लक्षण पत्तियों, तने और फलियों पर जलसिक्त धब्बों के रूप में विकसित होते हैं| पत्तियों पर इनका भूरा रंग हो जाता है और रोशनी के सामने यह चमकदार व पारभासक दिखाई देते हैं| तनों पर भी यह धब्बे जलसिक्त होते हैं तथा आयु के बढ़ने के साथ-साथ भूरे रंग के हो जाते हैं|

फलियों पर भी ये धब्बे जलसिक्त होते हैं और ग्रीज जैसे लगते हैं तथा इनका रंग भी बहुत कम बदलता है| ठंडा तथा नमी वाला मौसम इस रोग के पनपने के लिए सहायक है| पाला पड़ने से भी इस रोग की वृद्धि अधिक होती है|

रोकथाम-

1. रोगग्रस्त अवशेषों को इकट्ठा करके नष्ट करें|

2. तीन वर्षीय फसल चक्र अपनाएं|

3. स्वस्थ बीज का चयन करें|

4. बीज बिजाई से पहले ट्राइकोडर्मा और बीजामृत से उपचारित करें|

यह भी पढ़ें- शुष्क क्षेत्र में जैविक खेती कैसे करें, जानिए आधुनिक तकनीक

मोजेक- इस मटर के बीज जनित रोग के पौधे बौने रह जाते हैं, पत्तियों छोटी हो जाती हैं, शिराएं साफ दिखाई देने लगती हैं और पत्तियों के गुच्छे बन जाते हैं| रोगग्रस्त पौधों पर फूल बहुत कम संख्या में लगते हैं तथा फलियां या तो बनती ही नहीं, अगर बन गई तो बीज नहीं बनते है| इस विषाणु का बीज द्वारा यह एक क्षेत्र से दूसरे क्षेत्र में फैलता है|

रोकथाम-

1. रोग प्रतिरोधी किस्मों का चयन करें|

2. रोगहवाहक कीटों की रोकथाम के लिए नीम, तेल का 10 से 15 दिन के अंतराल पर छिड़काव करें|

3. खेत में परावर्ती बिछौना बिछाने से भी रोगवाहक कीटों की संख्या में कमी आ जाती है|

अगेता भूरापन- इससे मटर के रोगग्रस्त पौधों का विकास कम होता है और उन पर भूरे रंग के धब्बे बन जाते हैं| फलियों पर जामनी रंग के धब्बे चक्र बनाते हुए या गड्ढे के रूप में दिखाई देते हैं| अगर रोग का संक्रमण अगेती अवस्था में हो जाए तो ग्रस्त फलियां छोटी तथा विकृत हो जाती हैं| प्रकृति में इस विषाणु का संक्रमण सेमवर्गीय फसलों तथा मटर पर ही होता है| सेमवर्गीय खरपतवार भी इस रोग के शिकार हो जाते हैं|

रोकथाम-

1. विषाणुमुक्त बीज का ही इस्मेताल करें|

2. सेमवर्गीय खरपतवारों को खेत से तथा आसपास के क्षेत्र से नष्ट करें|

3. रोगवाहक सूत्रकृमि की रोकथाम के लिए मिट्टी का उपचार ट्राइकोडर्मा से करें|

4. तीन वर्षीय फसल चक्र अपनाएं|

यह भी पढ़ें- शिमला मिर्च की जैविक खेती कैसे करें, जानिए किस्में, देखभाल और पैदावार

मटर फसल के कीटों का जैविक प्रबंधन

लीफ माईनर- इस मटर फसल किट के लार्वे पत्तों पर सुरंग बनाते हैं और फरवरी से अप्रैल तक हानि पहुंचाते हैं| प्रौढ़ थ्रिप्स फूल के अन्दर तथा शिशु पत्तों और फलियों पर पलते हैं|

रोकथाम- पंचगव्य या दशपर्नी के 5 से 10 प्रतिशत घोल का छिड़काव करें|

फली छेदक- इस मटर फसल किट की सुण्डियां पत्तों पर पलती हैं तथा बाद में फलियों में घुसकर बीज खाती हैं|

रोकथाम- एक किलोग्राम मेथी के आटे को 2 लीटर पानी में डालकर 24 घंटे के लिए रख देते हैं| इसके उपरान्त इसमें 10 लीटर पानी डालकर फसल पर छिड़काव करते हैं| इससे 50 प्रतिशत तक सुण्डियों की रोकथाम हो जाती है|

यह भी पढ़ें- मिर्च की फसल के प्रमुख कीट और उनका जैविक प्रबंधन कैसे करें

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