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जई की खेती: किस्में, बुवाई, पोषक तत्व, सिंचाई, देखभाल, पैदावार

July 10, 2018 by Bhupender Choudhary Leave a Comment

रबी मौसम में उगाई जाने वाली फसलों में जई का एक मुख्य स्थान है| हमारे देश में जई की खेती (Oats farming) अधिकतर सिंचित दशा में की जाती है, किंतु मध्य अक्टूबर तक भूमि पर्याप्त नमीं होने पर इसे असिंचित दशा में भी उगया जा सकता है| ऐसे सभी जलवायु क्षेत्रों में जहां गेहूं और जौ की खेती होती हो वहां इसकी खेती की जा सकती है| यह पाले एवं अधिक ठंड को सहन कर सकती है| जई पशुओं के खाने के लिए कोमल और सुपाच्य है| इसमें क्रूडप्रोटीन 10 से 12 प्रतिशत होता है| जई को भूसा या सूखे चारे के रूप में भी प्रयोग में लाया जाता है|

यह अपने सेहत संबंधी फायदों के कारण भी काफी प्रसिद्ध है| जई का खाना मशहूर खानों में गिना जाता है| जई में प्रोटीन और रेशे की भरपूर मात्रा होती है| यह भार घटाने, ब्लड प्रैशर को कंटरोल करने और बीमारियों से लड़ने की शक्ति को बढ़ाने में भी मदद करता है| यदि किसान बन्धु इसकी खेती वैज्ञानिक तकनीक से करें, तो जई की फसल से अच्छी उपज प्राप्त कर सकते है| इस लेख में जई की उन्नत खेती कैसे करें का उल्लेख किया गया है|

जई की खेती के लिए उपयुक्त जलवायु

जई की खेती के लिए ठंडी एवं शुष्क जलवायु उपयुक्त समझी जाती है, दक्षिण भारत में अधिक तापक्रम होने के कारण इसकी खेती अच्छी उपज नही देती है| इसलिए उत्तर भारत में कम तापक्रम के कारण इसकी खेती बड़े पैमाने पर की जाती है| इसकी खेती के लिए 15 से 25 डिग्री सेंटीग्रेट तापमान सर्वोतम माना जाता है|

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जई की खेती के लिए भूमि का चयन

जई की खेती सभी प्रकार की जमीनों में की जा सकती है, किन्तु दोमट मिट्टी इसकी खेती के लिये सर्वोत्तम होती है| हल्की जमीनों में इस फसल को अपेक्षाकृत जमीनों से अधिक जल की आवश्यकता होती है|

जई की खेती के लिए खेत की तैयारी

जई फसल का अच्छा अंकुरण प्राप्त करने के लिये खेत की अच्छे से तैयारी करना जरूरी है, इसके लिये खेत में देशी हल से दो-तीन जुताईयां या ट्रेक्टर चलित यंत्रों में एक बार कल्टीवेटर चलाने के बाद दो बार हैरो चलाये| तत्पश्चात् पाटा चलाकर खेत को समतल करना चाहिये| खेत में पानी निकासी की उचित व्यवस्था करें|

जई की खेती के लिए उन्नत किस्में

एच ऍफ़ ओ 114- इसे हरियाणा जई- 114 भी कहते है, यह अधिक उपज 500 क्विंटल हरा चारा प्रति हेक्टेयर देने वाली क़िस्म है, जिसकी कटाई के बाद बहुत तेजी से बृद्धि होती है, इसकी प्राय 2 से 3 काटइयाँ ले ली जाती है|

यु पी ओ 94- यह जई की प्रजाति उपज में काफी अच्छी है, इससे 500 से 550 चारा क्विंटल प्रति हेक्टेयर हरा चारा प्राप्त हो जाता है| यह किस्म गेरुई और झुलसा रोगो से प्रतिरोधी है|

कैंट- यह किस्म माध्यम समय में पकती है, जो उत्तरी भारत के मैदानी पर्वतीय क्षेत्रो के लिए उपयोगी है| यह गेरुई और झुलसा रोगों के लिए प्रतिरोधी है| उपज क्षमता 500 से 550 क्विंटल प्रति हेक्टेयर हरा चारा मिलता है|

अल्जीरियन- इस किस्म के पौधे अधिक समय तक हरे बने रहते है| यह शीघ्र 145 से 155 दिन में पकने वाली किस्म है, एक हेक्टेयर से लगभग 400 से 500 क्विंटल हरा चारा मिल जाता है|

अन्य प्रजातियाँ- ऍफ़ ओ एस- 1, यु पी ओ-13, यु पी ओ- 50, यु पी ओ- 92, यु पी ओ- 123, यु पी ओ- 160, ओ एस- 6, एस- 8 , ओ- एस 7, ओ- एस 9, ओ- एल 88, ओ एल- 99, जे एच ओ- 817, जे एच ओ- 822 के- 10, चौड़ी पत्ती पालमपुर- 1, एन पी -1, एन पी- 2, एन पी- 1 हायब्रिड, एन पी- 3 हायब्रिड, एन पी- 27 हायब्रिड, बी एस- 1, बी- 2 एस, बिस्टान- 2 बिस्टान -11, ब्रेकल- 11, ब्रेकल- 10 आदि किस्मे भी काफी लोकप्रिय है|

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जई की खेती के लिए बुआई का समय

अधिक उत्पादन प्राप्त करने के लिये जई की बोनी के लिये नवम्बर का समय सबसे उपयुक्त है, किंतु परिस्थितियों एवं चारे की आपूर्ति के अनुसार इसकी बुआई दिसम्बर प्रथम सप्ताह तक की जा सकती है| बुआई में देरी करने से तापमान में कमी के कारण अंकुरण देरी से होता है|

जई की खेती के लिए बीजदर और उपचार

चारे के लिये बोई गई जई की फसल के लिये 100 किलोग्राम बीज प्रति हेक्टेयर बोना चाहिये| किंतु दाने के लिये केवल 80 किलोग्राम बीज प्रति हेक्टेयर की आवश्यकता होती है| छिटकवा बुवाई हेतु समय से बुवाई करने पर 110 से 115 किलोग्राम बीज लगता है और पिछेती बुवाई करने पर 120 से 125 किलोग्राम प्रति हेक्टेयर बीज लगता है| बोनी के पहले बीज को 2 से 3 ग्राम प्रति किलोग्राम बीज की दर से कार्बाक्सिन या कार्बनडाजिम नाम दवा से उपचारित करने से अंकुरण अच्छा होता है और फसल बीज जनित रोगों से मुक्त रहती है|

जई की खेती के लिए बुवाई की विधि

जई की बोनी सीडड्रिल से 25 सेंटीमीटर की दूरी पर कतारों में करना चाहिये| बीज की बोनी 4 से 5 सेंटीमीटर गहराई में करना चाहिये| कतारों में बोयी गई फसल में खरपतवारों का नियंत्रण आसानी से किया जा सकता है, जिससे पौधों की बाढ़वार अच्छी होती है|

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जई की खेती के लिए खाद एवं उर्वरक

जई की अच्छी पैदावार के लिये 10 टन प्रति हेक्टेयर गोबर की खाद अंतिम जुताई के पूर्व खेत में बिखेर कर मिट्टी में मिला देना चाहिये| इस फसल को 80 किलोग्राम नत्रजन, 40 किलोग्राम स्फुर व 20 किलोग्राम पोटाश प्रति हेक्टेयर आवश्यकता होती है| कुल नत्रजन की एक तिहाई मात्रा तथा स्फुर एवं पोटाश की पूरी मात्रा बोनी के समय देनी चाहिये| शेष नत्रजन को दो बराबर भागों में क्रमशः पहली और दूसरी सिंचाई के बाद देना चाहिये|

बुआई के समय 2 किलोग्राम एजेटोबेक्टर का उपयोग करने से 20 किलोग्राम नत्रजन प्रति हेक्टेयर कम की जा सकती है साथ ही आधा किलोग्राम पी एस बी जीवाणु कल्चर का उपयोग करने से स्फुर की उपयोगिता बढ़ जाती है| इन दोनों जीवाणु कल्चर का उपयोग करने के लिये उन्हें 500 किलोग्राम गोबर खाद में मिला कर कतारों में बोनी के समय देना लाभप्रद होता है|

जई की खेती में सिंचाई प्रबंधन

जई फसल में पहली सिंचाई बोनी के 20 से 25 दिन पर करना चाहिये| पानी निकासी का उचित प्रबंध करना चाहिये, जिन स्थानों पर पानी रूकता है, वहां के पौधे पीले पड़ने लगते हैं| सिंचाई की संख्या व मात्रा भूमि की किस्म व तापमान पर निर्भर करती है| फिर भी अच्छे उत्पादन के लिये 3 से 4 सिंचाई देना आवश्यक है| स्वस्थ एवं पुष्ट बीजों के उत्पादन के लिये पुश्पावस्था के प्रारंभ से लेकर बीजों की दुग्धावस्था तक खेतों में नमी रहनी चाहिये| नमी की कमी होने से बीजोत्पादन पर प्रतिकूल प्रभाव पड़ता है तथा उत्पादन में कमी आती है|

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जई की खेती में खरपतवार नियंत्रण

चारे के लिये बाई गई जई की फसल में निंदाई की आवश्यकता कम होती है| क्योंकि पौधों की संख्या अधिक होने के कारण खरपतवार पनप नहीं पाते हैं, किन्तु बीज उत्पादन के लिये ली जाने वाली फसल में खरपतवार नियंत्रण लाभप्रद होता है| चौड़ी पत्ती वाले खरपतवारों के नियंत्रण के लिये 500 ग्राम 2, 4-डी का उपयोग 600 लीटर पानी में प्रति हेक्टेयर घोल कर छिड़काव करें|

जई की खेती में रोग और कीट रोकथाम

रोग नियंत्रण- यदि जई फसल का हरा चारा पशुओं को खिलाने के लिए प्रयोग करते है, तो इस अवस्था में रोग कम लगते है| जब जई का बीज बनाते है| तो कण्डवा, पट्टी का धारीदार रोग एवं रतुआ या गेरुई रोग लगते है| इनके उपचार हेतु मैंकोजेब 2 किलोग्राम या जिनेब 2.5 किलोग्राम का छिड़काव प्रति हेक्टेयर की दर से करना चाहिए|

कीट रोकथाम- जई का हरे चारे के रूप प्रयोग करने पर कम कीट लगते है, लेकिन बीज लेने पर खड़ी फसल में चूहे, माहू, सैनिक कीट एवं गुलाबी तना भेदक नुकसान पहुचाते है| इनका नियंत्रण हेतु चूहो के लिए जिंक फास्फाइड अथवा बेरियम कार्बोनेट के बने जहरीले चारे का प्रयोग करना चाहिए, तथा अन्य की रोकथाम हेतु क्यूनालफास 25 ईसी की 2.0 लीटर मात्रा का फेनवेलरेट 1 लीटर मात्रा 800 से 900 लीटर पानी में मिलाकर प्रति हेक्टेयर की दर से छिड़काव करना चाहिए|

ध्यान दे- चारे की फसल में कीटनाशक का प्रयोग न करें| प्रयोग करने पर कम से कम 15 से 20 दिन तक उस फसल को चारे के रूप में प्रयोग में न लावें|

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जई की खेती की कटाई और उत्पादन

एक कटाई के लिये बोई गयी जई की फसल को 50 प्रतिशत फूल आने की अवस्था में (75 से 85 दिन) कटाई करना उपयुक्त रहता है| इससे लगभग 400 क्विटल हरा चारा प्राप्त होता है| दो कटाई के लिये ली जाने वाली फसल पहली कटाई 55 से 60 दिन में तथा दूसरी कटाई 50 प्रतिशत फूल आने पर करनी चाहिये| इससे लगभग 550 क्विंटल प्रति हेक्टेयर हरा चारा प्राप्त होता है| दो कटाई वाली फसल को काटते समय इस बात का विशेष ध्यान रखना चाहिये कि पौधों की पहली कटाई 4 से 5 सेंटीमीटर ऊंचाई पर करें जिससे उसकी पुर्नवृद्धि अच्छी हो सके|

जई का बीज उत्पादन

बीज के लिये उगाई गई जई की फसल 50 से 55 दिन में एक बार हरा चारा के लिये कटाई करने के बाद बीज उत्पादन के लिये छोड़ देना चाहिये, ऐसा करने से लगभग 250 क्विंटल प्रति हेक्टेयर हरा चारा के साथ 15 से 25 क्विंटल प्रति हेक्टेयर बीज प्राप्त होता है| बीज उत्पादन के लिये ली गई फसल में चारे के लिये कटाई करने से पुर्नवृद्धि के बाद पौधे गिरते नहीं है| इससे बीज की गुणवत्ता तथा उत्पादन अच्छा प्राप्त होता है| फसल की कटाई न करने पर फसल के गिरने के कारण बीज उत्पादन पर विपरीत असर पड़ता है|

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